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Monday, December 25, 2023

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है, इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है


पहले मशहूर शायर शहरयार की यह ग़ज़ल पढ़िए...

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है

इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढ़े

पत्थर की तरह बे-हिस ओ बे-जान सा क्यूँ है

तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो

ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की

वो ज़ूद-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में

आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है
 
कुल जमा 6 लाइन की ग़ज़ल में शायर ने 6 सवाल पूछ लिए। अब अगर इन सवालों को पूछने पर शायर के खिलाफ कोई केस कर दे या सवाल पूछना देशद्रोह बताकर इन्हें अर्बन नक्सल करार दे तो हैरानी नहीं होगी। पर सवाल पूछना तो जरूरी है। यह अलग बात है कि आजकल यह कला मरती जा रही है। 
सवाल पूछना इसलिए जरूरी है कि यह जिंदा होने की निशानी होती है, पहला सवाल तो यही होता है मैं जिंदा क्यों हूं। फिर यह भी पूछा जा सकता है कि जिंदा कैसे हूं, किसके लिए हूं, कब तक हूं। और जब कोई शख्स इन सवालों के जवाब तलाशता है तो उन्हीं में कोई गैलीलिया बन जाता है कोई न्यूटन, कोई गौतम बुद्ध बन जाता है तो कोई गांधी और कोई नेहरू या आंबेडकर। जब किसी को इन सवालों के जवाब नहीं मिलते या खुद के होने पर ही शर्मिंंदगी होती है तो वह हिटलर या गोडसे भी बन सकता है। 
सवाल गंभीर होते हैं, मूलत: पूछना क्यों जरूरी है और इसके मानव जीवन, स्वभाव उसके हित, अहित पर क्या प्रभाव पड़ते हैं, इस बारे में कुछ जानते हैं..

प्रश्न पूछना मानव संचार, सीखने और समस्या-समाधान का एक मौलिक और आवश्यक पहलू है। यहां कई कारण दिए गए हैं कि प्रश्न पूछना क्यों महत्वपूर्ण है:

ज्ञान अर्जन: प्रश्न पूछना नई जानकारी प्राप्त करने का प्राथमिक साधन है। यह व्यक्तियों को स्पष्टीकरण प्राप्त करने, अंतर्दृष्टि प्राप्त करने और किसी विषय के बारे में उनकी समझ को गहरा करने की अनुमति देता है।

आलोचनात्मक सोच: प्रश्नों को तैयार करने के लिए आलोचनात्मक सोच कौशल की आवश्यकता होती है। यह व्यक्तियों को जानकारी का विश्लेषण करने, उसके महत्व का मूल्यांकन करने और वैकल्पिक दृष्टिकोणों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। यह व्यक्ति की आलोचनात्मक सोच क्षमताओं के विकास में योगदान देता है।

सक्रिय जुड़ाव: प्रश्न पूछना व्यक्तियों को बातचीत या सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से संलग्न करता है। यह जिज्ञासा और भाग लेने की इच्छा का संकेत देता है, विचारों के अधिक गतिशील और संवादात्मक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है।

समस्या-समाधान: प्रश्न समस्या-समाधान प्रक्रिया का अभिन्न अंग हैं। वे मुद्दों की पहचान करने, प्रासंगिक जानकारी इकट्ठा करने और संभावित समाधानों की खोज में मार्गदर्शन करने में मदद करते हैं।

संचार कौशल: प्रभावी संचार में बोलना और सुनना दोनों शामिल हैं। प्रश्न पूछना सक्रिय रूप से सुनने को प्रदर्शित करता है और दूसरों को अपने विचार और अनुभव साझा करने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिससे अधिक सार्थक बातचीत होती है।

संबंध बनाना: प्रश्न पूछने से संबंध बनाने और रिश्तों को मजबूत करने में मदद मिलती है। यह दूसरों में वास्तविक रुचि दिखाता है, जुड़ाव की भावना पैदा करता है और अधिक सकारात्मक और सहयोगात्मक वातावरण को बढ़ावा देता है।

सीखने को सुविधाजनक बनाना: शैक्षिक सेटिंग्स में, प्रश्नों का उपयोग छात्रों की समझ का आकलन करने, चर्चा को प्रोत्साहित करने और स्वतंत्र सोच को प्रोत्साहित करने के लिए किया जाता है। वे सीखने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

नवोन्वेष: कई सफलताएँ और नवोन्वेष खोजपूर्ण प्रश्न पूछने से उत्पन्न होते हैं। यथास्थिति पर सवाल उठाने और संभावनाओं को तलाशने से नए विचारों और खोजों को जन्म मिल सकता है।

अनुकूलनशीलता: तेजी से बदलती दुनिया में, सूचित और अनुकूलनीय बने रहने के लिए प्रश्न पूछना महत्वपूर्ण है। यह प्रासंगिक और अद्यतन जानकारी प्राप्त करके व्यक्तियों और संगठनों को अनिश्चितता से निपटने में मदद करता है।

निरंतर सुधार: प्रश्न व्यक्तियों और संगठनों को उनकी प्रक्रियाओं पर विचार करने, वृद्धि के लिए क्षेत्रों की पहचान करने और बेहतर परिणामों के लिए प्रयास करने के लिए प्रेरित करके निरंतर सुधार लाते हैं।

संक्षेप में, प्रश्न पूछना मानव होने का एक मूलभूत हिस्सा है। यह जिज्ञासा को बढ़ावा देता है, सीखने को बढ़ावा देता है और व्यक्तिगत और सामूहिक विकास में योगदान देता है। चाहे व्यक्तिगत रिश्ते हों, शिक्षा, या पेशेवर सेटिंग, विचारशील प्रश्न पूछने की क्षमता एक मूल्यवान कौशल है। अब तो यह समझ में आना आसान हो गया होगा कि आजकल सवाल क्यों नहीं पूछा जा रहा है और हमें सवाल विहीन समाज की ओर धकेल कर क्या हासिल करने का एजेंडा लागू किया जा रहा है। 

Thursday, August 31, 2023

चांद पर शिवशक्ति पाइंट बनाम राजनीति का अंतरग्रहीयकरण


 चांद पर शिवशक्ति पाइंट बनाम राजनीति का अंतरग्रहीयकरण 


वर्ष 2000 में एक फिल्म आई थी रिफ्यूजी। अभिषेक बच्चन के कॅरिअर की यह पहली फिल्म थी। इसमें जावेद अख्तर का लिखा एक गीत था, 

पंछी नदिया पवन के झोंके, 

कोई सरहद ना इन्हें रोके

सरहदें इन्सानों के लिए हैं

सोचो तुमने और मैने क्या पाया इन्सां हो के।

इस गीत के लिए जावेद अख्तर को फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिला था। आप सोच रहे होंगे कि इस जानकारी का भला इस लेख के शीर्षक से क्या तालमेल है। बिल्कुल है। दरअसल जावेद अख्तर को पंछी, नदिया, पवन के साथ राजनीति भी जोड़नी थी, तो ये लाइनें ऐसी बनतीं, पंछी, नदिया, राजनीति, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके। 

आज तो यही बात चरितार्थ हो रही है। अब राजनीति प्रदेश, देश और धरती की सीमा पार कर चांद तक पहुंच चुकी है। इसका ताजा उदाहरण है चंद्रयान 3 की सफल लैंडिंग के बाद उस प्वाइंट को शिवशक्ति का नाम देना। आपका सवाल हाे सकता है कि भला इसमें क्या राजनीति हो सकती है। यह तो वैज्ञानिकों और देश के सम्मान के लिए एक प्रतीक के तौर पर दिया गया नाम है। इससे पहले भी 2008 में जब भारत ने पहली बार चांद पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी और PSLV-C11 से लॉन्च चंद्रयान 1 की चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव से टक्‍कर कराई थी, उस वक्त जिस जगह चंद्रयान-1 का मून इम्पैक्ट प्रोब (MIP) टकराया था, उसे 'जवाहर पॉइंट' नाम दिया गया। जाहिर है, तब कांग्रेस की मनमोहन सरकार थी, ऐसे में देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम पर यह नामकरण किया गया। सवाल उठता है कि क्या जवाहर पॉइंट देशभक्ति थी और शिवशक्ति पॉइंट राजनीति है। 

जायज सवाल है, पर इसका जवाब भी इसी सवाल में दे दिया गया है। अगर जवाहर पॉइंट का नामकरण भी राजनीति ही थी तो यह अच्छी राजनीति थी, क्योंकि इसी का नतीजा है कि 15 साल बाद चंद्रयान 3 चांद के उसी दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतारा गया। तो ऐसे में शिवशक्ति पॉइंट के नामकरण में भला क्या आपत्ति हो सकती है। नहीं होती, अगर यही नाम ऐसे किसी पॉइंट का होता जो मानसरोवर के सामने माैजूद कैलाश पर्वत के किसी राज को खोलने के किसी वैज्ञानिक मिशन के लिए वहां के किसी स्थान के लिए रखा जाता। तब शिवशक्ति के नाम के पीछे की एक जायज वजह होती। कैलाश पर्वत पर वास करने संबंधी भगवान शिव की मान्यता के साथ इस नामकरण पर कोई भी आपत्ति खारिज की जा सकती थी। 

लेकिन चांद के दक्षिणी ध्रुव पर शिवशक्ति पाॅइंट के नामकरण की तीन आपत्तियां बताई जा सकती हैं। पहली, जिस मिशन के लिए चंद्रयान 3 के विक्रम लैंडर को उसके 4 पेलोड के साथ वहां भेजा गया है, उसका इस नाम के साथ कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी, इसराे के वैज्ञानिक जिस जिद, जुनून, जज्बे और वैज्ञानिक नजरिए के साथ यह पूरा मिशन संभाल रहे हैं, उसमें धर्म वैज्ञानिकों का एक निजी विश्वास जरूर हो सकता है, लेकिन इसे मिशन के दूरदर्शी नतीजों के साथ जबरन जोड़ना कतई फायदेमंद नहीं होगा। उलटे इसके नुकसान जरूर हो सकते हैं। इस पूरे मिशन में जितने भी वैज्ञानिक जुड़े हैं, जरूरी नहीं कि वे सारे हिंदू हों, होने भी नहीं चाहिएं। ऐसे में किसी वैज्ञानिक मिशन से जुड़े ऐसे बेहद अहम पाॅइंट का नाम धर्म विशेष पर क्यों रखा जाना चाहिए। तीसरी आपत्ति यह है कि इस नाम को नासा या यूरोपियन स्पेस एजेंसी जैसी अंतरराष्ट्रीय स्पेस एजेंसियों को किस संदर्भ में समझाया जाएगा। आखिर उन्हें यह कैसे बताया जाएगा कि चांद की संरचना को बेहतर ढंग से समझने और उसकी सतह पर मौजूद रासायनिक और प्राकृतिक तत्वों, मिट्टी, पानी आदि पर वैज्ञानिक प्रयोग करने के इस मिशन के बेहद अहम प्वाइंट को केवल हिंदू देवता के नाम पर क्यों रखा गया। 

और यह भी कि देश के एक हिंदूवादी संगठन के नेता का यह बयान जब वतन की सीमा पार कर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जगह बनाएगा कि चांद को हिंदू राष्ट्र घोषित कर देना चाहिए, तब भारत किस मुंह से इस पर सफाई देगा। सच तो यह है ऐसे बयान देने वालों पर कार्रवाई न करने की स्थिति में भारत की धर्मनिरपेक्ष देश से बीते 9 सालों में हिंदुत्व को बढ़ावा देने वाले देश की छवि और मजबूत होगी। क्या इससे खालिस वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक खोज के लिए बनी नासा, ईएसए (यूरोपियन स्पेस एजेंसी) जैसी अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थाओं के सामने हमारा मजाक नहीं बनेगा। 

अब जरा, शिवशक्ति के पीछे की राजनीति समझने की कोशिश करते हैं। अगर केंद्र सरकार का इरादा वास्तव में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक मिशन को बढ़ावा देने का होता तो वह इसरो जैसी संस्थाओं का बजट बढ़ाता। लेकिन हकीकत तो यह है कि इसी साल के बजट में सरकार ने इसरो का बजट 1100 करोड़ रुपए कम कर दिया। यानी दो चंद्रयान मिशन के बराबर का बजट। आरोप तो ये भी लग रहे हैं कि चंद्रयान 3 मिशन के लिए लॉन्च पैड बनाने वाली कंपनी के कर्मचारियों केा 17 महीने से वेतन नहीं मिला है। परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर इससे भी चंद्रयान मिशन जैसे अभियानों से जुड़े इसरो सरीखे संगठनों के आत्मविश्वास को बढ़ावा तो नहीं ही मिलता। अब जरा विदेश यात्रा से लौटकर सीधे इसरो जाने और वहां वैज्ञानिकों से मिलकर पीएम ने जिन तीन बड़ी घोषणाओं का ऐलान किया, उन्हें देखते हैं। पहली, 23 अगस्त को हर साल भारत नेशनल स्पेस डे मनाएगा। दूसरी- चांद पर लैंडर जिस जगह उतरा, वह जगह शिव-शक्ति पॉइंट कहलाएगी। तीसरी- चांद पर जिस जगह चंद्रयान-2 के पद चिन्ह हैं, उस पॉइंट का नाम 'तिरंगा' होगा। 

इन घोषणाओं के राजनीतिक फायदे तो समझ आते हैं, पर वैज्ञानिक फायदे जानने के लिए रिसर्च की जरूरत पड़ सकती है। अगर पीएम इसरो के लिए 2-4 हजार करोड़ के विशेष बजट का ऐलान कर देते, इस पूरे मिशन से जुड़े वैज्ञानिकों, कर्मचारियों, स्टॉफ के लिए एक या दो महीने के वेतन के बराबर बोनस की घोषणा करते या अगले ऐसे ही मिशन के बजट में 10-15 फीसदी बढ़ोतरी की ही घोषणा कर देते तो शायद ज्यादा बेहतर हो सकता था। बहरहाल, एक बात तो तय है कि भले ही सरकार ने इसरो के बजट को 13700 कराेड़ से घटाकर 12543 करोड़ कर दिया हो, वह चंद्रयान मिशन 3 को 2024 के अपने राजनीतिक मिशन की कामयाबी के लिए भुनाने में किसी तरह की कोर-कसर नहीं रहने देगी। चंद्रयान 3 की सफलता के लिए जिस तरह राजनीतिक बधाईयों की विज्ञापनबाजी हो रही है, उससे यह प्रत्यक्षं किं प्रमाणम  की तरह देखा भी जा सकता है। 

अब, एक बार जरा यह भी सोचकर देखें कि शिवशक्ति के नामकरण का इसरो के ऐसे किसी वैज्ञानिक शोध या मिशन के काम पर क्या असर पड़ेगा। यह सोचें कि क्या इस नामकरण के बाद भी इसरो से जुड़ा हर वैज्ञानिक चाहे वह किसी भी धर्म का हो, पूरे जोश, जुनून के साथ अपने काम में जुटा रहेगा। जुटना ही चाहिए, देश को आगे ले जाने का मिशन है। पर मानव मन का क्या। क्या गैर हिंदू वैज्ञानिकों के मन में इस हिंदू नामकरण से कहीं न कहीं छोटी सी भावना आहत नहीं हुई होगी। जरूर होगी। क्या इसरो के चीफ का नाम सोमनाथ की जगह करीम या जोेसेफ होता तो भी चंद्रयान की सफलता का श्रेय इसरो चीफ के नाम से साथ जोड़ा जाता। शायद ऐसा करना मुश्किल होता। लेकिन हमें पूरा भरोसा है कि हमारे वैज्ञानिक देश की राजनीति में चल रही अवैज्ञानिक और स्वार्थी सोच से प्रभावित नहीं होंगे और देश को वैज्ञानिक सोच वाली नई राह पर ले जाने के प्रयासों में सफल होंगे। खासकर इसरो चीफ एस सोमनाथ का यह बयान अहम है कि मैं एक खोजकर्ता हूं। मैं चंद्रमा का अन्वेषण करता हूं। विज्ञान और आध्यात्मिकता दोनों की खोज करना मेरे जीवन की यात्रा का एक हिस्सा है। मैं कई मंदिरों में जाता हूं और कई धर्मग्रंथ पढ़ता हूं। यह अच्छी बात है। पीएम ने भी कहा है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में, वेदों में, पुराणों में, स्पेस साइंस का अपार भंडार है। उसे आज के ज़माने से जोड़ने की ज़रूरत है। ज्ञान के इस भंडार का उपयोग करने की ज़रूरत है। पीएम ने नौजवानों को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करने की प्रेरणा देते हुए बताया कि देश को महाशक्ति बनाने में विज्ञान कितनी बड़ी भूमिका अदा कर सकता है। यह उम्मीद की जानी चाहिए देश चांद पर चंद्रयान 3 जैसे मिशन और चांद को हिंदू राष्ट्र बनाने की घोषणा सरीखे दो परस्पर विपरीत विचारधारा वाले दोराहे पर खड़े होने के बावजूद अपने लिए वैज्ञानिक सोच और बेहतर भविष्य के लिए सही राह चुन पाएगा। 

इस मौके पर देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि मनुष्य चांद पर तो पहुंच गया लेकिन धरती पर उसे कैसे जिंदा रहना है, यह नहीं सीख पाया। हम पक्षी की तरह आकाश में उड़ सकते हैं, हम मछली की तरह सागर में तैर सकते हैं, मगर हम इंसान की तरह धरती पर नहीं चल सकते। उम्मीद है कि अब हम धरती को भी ग्लोबल वार्मिंग, युद्ध, नफरत से बचाने और इंसानों के रहने लायक बनाने के मिशन में कामयाबी की तरफ बढ़ेंगे। ऐसा न हुआ तो सूर्य व शुक्र को लक्ष्य बनाकर शुरू किए गए मिशन भले सफल हो जाएं, पर शायद हम न धरती बचा पाएंगे न उसके इंसानों को। 


Thursday, July 13, 2023

तो क्या गांधी, जेपी और क्रांति की धरोहर पर बुलडोजर चलेगा So will the bulldozer run on the heritage of Gandhi, JP and revolution


यह सवाल नहीं चिंता है। देश की आजादी के अमृत काल में अगर गांधी, जेपी की विरासत पर बुलडोजर चलने की बात हो रही हो तो चिंतित होना स्वाभाविक है। और यह चिंता तब और भी बढ़ जाती है जब ऐसा पहली बार नहीं हो रहा होता। पहले ऐसा गुजरात के साबरमती आश्रम के साथ हुआ और अब बनारस में गंगा किनारे बने सर्व सेवा संघ के साथ हाेने के आसार हैं। 

इस मामले को समझने के लिए एनसीईआरटी की कक्षा 10 की राजनीति शास्त्र की किताब के एक अध्याय सत्ता की साझेदारी एक सवाल का जवाब पढ़ना चाहिए, इसके मुताबिक सत्ता की साझेदारी के अभाव में शासन कुछ चुनिंदा लोगों की मुट्ठियों मे रह जाता है। इससे तानाशाही पनपती है और लोकतंत्र की हत्या हो जाती है। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि लोगों के हाथों में सत्ता सौंपना ही लोकतंत्र की मूल भावना है। इसलिए हम कह सकते हैं कि सत्ता की साझेदारी हर समाज में जरूरी है। इस अध्याय का मूल पेज आप भी पढ़, देख सकते हैं, इससे पहले कि यह कोर्स से बाहर हो जाए। अगर अब तक न हुआ हो तो।




अब इस जवाब को 1975 के आपातकाल के संदर्भ में देखिए। चुनिंदा लोगों की मुटि्ठयों में सत्ता रखने की ही एक कोशिश थी देश में आपातकाल लगाना। लेकिन इस तानाशाही की कोशिश को तब देश की जनता ने जबर्दस्त आंदोलन के जरिए उखाड़ फेंका था। जयप्रकाश का बिगुल बजा तो, जाग उठी तरुणाई है और हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा, जैसे नारों के साथ पूरा देश लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलित हो उठा था।





इसी संपूर्ण क्रांति की एक अहम धुरी के तौर पर उस वक्त बनारस में गंगा के किनारे राजघाट पर बना, बसा सर्व सेवा संघ बेहद सक्रिय था। 1948 में गांधी की प्रेरणा से बनाया गया यह संस्थान उस दौर में संपूर्ण क्रांति और सर्वोदय आंदोलन का प्रेरणा स्रोत ही नहीं, शिक्षण, प्रशिक्षण और आंदोलन से जुड़े साहित्य के प्रकाशन का भी अहम केंद्र था। सरकार की बंदिशों के बावजूद तब यहां से तरुणमन जैसी पत्रिकाएं छापी, बांटी जा रही थीं। इन्हीं तमाम कोशिशों का नतीजा था कि 1977 में तानाशाही की बेलगाम कोशिश पर अंकुश लगा दिया गया। और इंदिरा गांधी को इस्तीफा देकर दुबारा चुनाव कराना पड़ा। 


आखिर इस कहानी की आज क्या प्रासंगिकता है। जरूर है और बहुत ध्यान देकर इसे जानने की भी जरूरत है। दरअसल आज 48 साल बाद यकायक देश की राजनीति उस मुकाम पर आ पहुंची है, जहां सर्व सेवा संघ को ही गांधी और सर्वोदयी विचारों को दफनाने की मुहिम का एक नया पड़ाव बनाया जा रहा है। अगर 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई से राहत नहीं मिली या यूपी अथवा केंद्र सरकार में किसी का हृदय परिवर्तन नहीं हुआ तो आने वाले कुछ दिनों में गांधी विचारों की ही तरह सर्व सेवा संघ के तमाम भवन भी ध्वस्त कर दिए जाएंगे।


आप पूछेंगे कि इसका जेपी के आंदोलन से भला क्या लेना-देना। तो इसके लिए चाणक्य का एक सूत्र प्रासंगिक होगा। वे कहते हैं, “जैसे ही भय आपके करीब आए, उस पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दीजिये।” आखिर यह भय किस बात का है। कहीं यह भय तो नहीं कि अगर फिर से तानाशाही की कोशिश की गई तो 1975 की ही तरह एक बार फिर सर्व सेवा संघ देश में जनांदोलन की धुरी बन सकता है। ऐसे में इसे जड़ से खत्म करना ही बेहतर होगा। संभवत: ऐसे ही किसी खतरे को भांपकर सत्ता पक्ष और उससे जुड़े तमाम बौद्धिक, वैचारिक संगठनों ने सर्वाेदयी संगठनों में घुसपैठ कर उन्हें अंदर से खोखला करने की मुहिम काफी पहले ही शुरू कर दी थी। शायद यही वजह है कि जब सर्व सेवा संघ परिसर के तमाम भवनों पर उन्हें ढहाने का नोटिस लगाया गया तो बहुत हैरानी नहीं हुई। दरअसल सत्ता की सोच अब उन प्रतीकों को भी ढहा देने की है जो किसी भी तरह लोगों को सत्ता को चुनौती देने की सफल कोशिशों की याद दिलाते हैं। 


तो क्या वास्तव में सर्व सेवा संघ को ढहा दिया जाएगा। बहुत से संक्षेप में इस मामल को समझते हैं। पहले यह जानें कि सर्व सेवा संघ कब और क्यों बना। 1947 में देश आजाद हुआ। तब महात्मा गांधी ने सोचा कि देश को बेहतर बनाने के लिए, सर्वोदयी समाज की स्थापना के लिए सभी अखिल भारत रचनात्मक संस्थाओं को एकजुट किया जाए और नया भारत गढ़ने के काम में जुटा जाए। 2 फरवरी 1948 को वर्धा में इसी उद्देश्य से बैठक बुलाई गई थी। गांधी जी को भी इसमें आना था। लेकिन इससे दो दिन पहले 30 जनवरी को नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मार दी। लेकिन गांधी विचार जिंदा रहे। गांधीजी की आकांक्षा को पूरा करने के लिए उनके साथी आचार्य विनोबाजी, किशोरलालजी मश्रूवाला, डॉ. जे. सी. कुमारप्पा, आचार्य काकासाहेब कालेलकर, श्रीकृष्णदासजी जाजू, आदि ने मिलकर ‘अखिल भारत सर्व सेवा संघ’ नाम से अप्रैल 1948 में इसे बनाया।

अब यह सारा विवाद इसलिए सामने आया कि  16 जनवरी 2023 को किसी मोइनुद्दीन की ओर से बनारस सदर के उप जिलाधिकारी की कोर्ट में एक अर्जी डाली गई। इसमें दावा किया गया कि सर्व सेवा संघ की पूरी संपत्ति उत्तर रेलवे की है। शिकायतकर्ता मोइनुद्दीन की इस अर्जी पर न कोई पता दर्ज है, न ही फोन नंबर। लेकिन इस शिकायत को तहसील प्रशासन ने गंभीरता से लिया कि तहसीलदार, एसडीएम से लेकर डीएम तक जांच में जुट गए। इसके बाद लखनऊ स्थित उत्तर रेलवे के सहायक मंडल अभियंता ने बनारस के उप जिलाधिकारी (सदर) के यहां एक केस दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि फर्जीवाड़े से सर्व सेवा संघ ने 12.89 एकड़ जमीन हड़पी है। यानी सर्व सेवा संघ ने 63 बरस पहले बनारस के राजघाट में जिस जमीन का बैनामा कराया था, उसे रेल अफसरों ने कूटरचित दस्तावेज करार दिया है। 

तत्कालीन राष्ट्रपति और सर्व सेवा संघ के बीच जमीन को लेकर हुआ समझौता


कोर्ट केसों की लड़ाई के बीच 15 मई 2023 को पुलिस और प्रशासनिक अफसरों ने सर्व सेवा संघ परिसर में मौजूद गांधी विद्या संस्थान (गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ स्टडीज) के कमरों का ताला तोड़कर उसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया। वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के मुखिया हैं, जो फिलहाल राष्ट्रीय सेवक संघ से जुड़े हैं।

इस बीच सर्व सेवा संघ की अपील को तहसीलदार से लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट तक में खारिज किया जा चुका है। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है जहां 14 जुलाई को सुनवाई होगी। 

इस मामले में सर्व सेवा संघ के कार्यक्रम समन्वयक रामधीरज कहते हैं, ''साक्ष्य के तौर पर हमारे पास रजिस्ट्री के तीन दस्तावेज मौजूद हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद की संस्तुति के बाद रेलवे ने पूरी कीमत लेकर 12.89 एकड़ जमीन बेची थी। सर्व सेवा संघ के पक्ष में बैनामा बाद में हुआ और जमीनों की कीमत पहले चुकाई गई। सबसे पहले 05 मई 1959 को चालान संख्या 171 के जरिये भारतीय स्टेट बैंक में 27 हजार 730 रुपये जमा हुए। 750 रुपये स्टांप शुल्क भी दिया गया। इसके बाद 27 अप्रैल 1961 में 3240 रुपये और 18 जनवरी 1968 को 4485 रुपये चालान संख्या क्रमशः03 और 31 के जरिये स्टेट बैंक में जमा हुए।



हालांकि यही रामधीरज यह भी कहते हैं कि  गांधी और सर्वाेदयी विचारों पर बनी संस्था को खत्म करने के बदले सरकार कम से कम मुआवजा तो दे ही दे। देखिए वीडियो।  




अगर सुप्रीम कोर्ट ने सर्व सेवा संघ परिसर को ढहाने पर अस्थायी रोक लगा भी दी तो इसे कब तक रोका जा सकेगा, यह कहना जरा मुश्किल ही है।  ऐसे में अब गांधीवादियों, सर्वोदयी लोगों को सरकार को यह सुझाव जरूर देना चाहिए कि अगर वे क्रांति और गांधी विचारों के प्रतीक चिन्ह को ढहाना ही चाहते हैं कि वहां होने वाले नए निर्माण में कम से कम एक छोटा सा संग्रहालय जरूर बनाएं जिसमें लिखा हो, निर्माण 1948,विध्वंस 2023। इस संग्रहालय में गांधी विचार से जुड़े इस शीर्ष संगठन के हिस्से रहे नेताओं के फोटो, उनकी किताबें, उनके लेख आदि भी होने चाहिएं। इनमें महात्मा गांधी, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, आचार्य विनोबा भावे, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जयप्रकाश नारायण, उनकी पत्नी प्रभावती, जेसी कुमारप्पा, आचार्य राममूर्ति,  अच्युत पटवर्धन, नारायण देसाई, विमला ठकार, निर्मला देशपांडे, कृष्णराज मेहता, शंकर राव देव जैसी हस्तियां जरूर शामिल की जाएं। विश्व विख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर ई.एफ शुमाखर की किताब  `स्माल इज ब्यूटीफुल’ (Small is Beautiful ) भी इसका हिस्सा होनी चाहिए, जो उन्होंने यहीं लिखी थी।

Thursday, July 6, 2023

भारतीय राजनीति में मूत काल का प्रवेश

राजधानी से बही सत्ता की यह धार हर जिले, हर थाने तक पहुंचनी चाहिए



हमने पढ़ा है कि काल तीन तरह के होते हैं। भूत काल, वर्तमान काल और भविष्य काल। इन दिनों देश की राजनीति में एक नया काल चल रहा है। यह है राजनीति का मूत काल। जी हां, आपने सही सुना। आपको याद होगा टीवी पर एक कार्यक्रम आता था, आश्चर्यजनक किंतु सत्य। 

यह बिल्कुल उसी तरह का काल है, आश्चर्यजनक किंतु सत्य। और सत्य यानी सच कठोर होता है। नंगा भी होता है। बिल्कुल उसी प्रवेश शुक्ला की तरह जिसने आदिवासी युवक दशमत के सिर पर अपनी पेशाब की धार बिल्कुल उस तरह बहाई जैसे बचपन में बच्चे खेल-खेल में अक्सर बहाते रहते हैं। लेकिन प्रवेश शुक्ला बच्चा नहीं है। वह दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का एक छुटभैया नेता है। या अब यह सकते हैं कि था। सीधी जिले के भाजपा विधायक केदारनाथ शुक्ला का प्रतिनिधि।


 

ऐसा माना जाता है कि विधानसभा क्षेत्रों में विधायक प्रतिनिधि का जलवा विधायक जी से भी कई गुना ज्यादा होता है। और सीधी में तो इसके कई साक्षात उदाहरण हम पहले भी देख चुके हैं। करीब साल भर पहले ही एक और वीडियो वायरल हुआ था। गजब संयाेग है कि उसमें भी सच को नंगा ही दिखाया गया था। तब सच दिखाने वाले पत्रकार कनिष्क तिवारी सहित नौ जवानों को पुलिसवालों ने अंडरवियर में ही थाने में बंद कर दिया था। 



इनका गुनाह यह था कि इन्होंने सीधी में भाजपा विधायक के खिलाफ खबरें लिखी थीं। हैरानी वाली बात तो यह है कि प्रवेश शुक्ला के मामले में जिस तरह इनके किसी साथी ने इनकी नंगी हरकत का वीडियो बनाकर वायरल कर दिया, ठीक उसी तरह किसी पुलिस वाले ने ही तब उन पत्रकारों की अधनंगी ड्रेस वाली फोटो खींचकर वायरल कर दी थी। यह एक तरह से उनका दुस्साहस ही था कि हमारा कौन क्या बिगाड़ लेगा। यहां तो हमारा राज है। सरकार हमारे बाप की,पुलिस हमारे बाप की। प्रशासन हमारे बाप का, तो चलेगी भी हमारे बाप की। 

उस वक्त मामला यह सामने आया था कि सीधी विधायक पं.केदारनाथ शुक्ला के विधायक पुत्र गुरुदत्त शरण पर किसी फेसबुक आईडी से टिप्पणी करने और विधायक जी के कथित भ्रष्टाचार पर खबरें लिखने से माननीय नाराज थे। बहरहाल, इससे यह तो पता चल गया कि सीधी में नाम के अलावा कुछ भी सीधा नहीं है। और इस बार तो यहां की राजनीति में भी मूत काल का प्रवेश हो गया। 



अब जरा एक बार सोच कर देखते हैं कि जब प्रवेश शुक्ला आदिवासी युवक पर पेशाब कर रहा होगा, तो उसकी क्या सोच रही होगी। शायद यह सामने बैठे व्यक्ति को उसकी औकात बताने का सबसे प्रभावी तरीका माना गया हो। जैसे इन दिनों कई वायरल वीडियो में देखा जा रहा है। कोई दबंग किसी दलित से थूक कर चाटने काे कहता है तो कहीं चप्पल पहनकर घर के सामने से गुजरने पर दबंग दलितों की हड्‌डी तोड़ पिटाई कर देते हैं। और एक वजह यह भी हो सकती है, जैसा आरोप कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने लगाया। जिसकी सच्चाई शायद जांच के बाद सामने आए। सिंह ने कहा कि विधायक जी अपने गुर्गों की मदद से रेत का अवैध खनन करते हैं, इसका विरोध करने की वजह से सबक सिखाने के लिए यह हरकत की गई। 



बहरहाल, सीधी में विधायक प्रतिनिधि रहे प्रवेश शुक्ला ने जिस तरह सत्ता के नशे में पेशाब की धार बहाई, वह कहीं से कहीं सत्ता की धार जैसी ही लग रही थी। निर्मम, संवेदनहीन, निरंकुश और दिशाहीन। और दूसरा आश्चर्यजनक किंतु सत्य का उदाहरण मध्यप्रदेश की राजधानी के सीएम हाउस में देखने को मिला, जब सूबे के मुखिया ने मूत्र विसर्जन के शिकार आदिवासी को वीआईपी दर्जा देते हुए न केवल शॉल ओढ़ाकर सम्मान दिया, बल्कि उसके पैरों को धोकर उसका पानी सिर से लगाकर आदिवासियों से माफी भी मांगी। यहां पैरों पर गिरती नजर आई सत्ता की दूसरी धार।



अब सवाल यह है कि क्या सीएम हाउस में बही सत्ता की धार, सीधी में आदिवासी के सिर पर बहाई गई सत्ता के नशे ही धार को काट पाएगी। क्या मध्यप्रदेश के आदिवासी अपने एक साथी के साथ की गई इस अमानवीय हरकत को सीएम की मेजबानी की मेहरबानी से भुला पाएंगे। इसके लिए तो अभी काफी समय है। यानी चार, पांच महीने का समय तो है ही। और जनता की याददाश्त वैसे भी काफी कमजोर होती है। 



लेकिन इसके लिए राजधानी से सीएम के हाथों से आदिवासी के पैरों में बही सत्ता की यह धार अब रुकनी नहीं चाहिए। यह हर जिले, हर तहसील और हर थाने तक बहनी चाहिए। प्रदेश के हर ऐसे आदिवासी या दलित जिसके साथ किसी भी तरह का अन्याय हुआ है, उससे इसी तरह माफी मांगने की बकायदा नीति बन जानी चाहिए। जब कलेक्टर हर दिन अपने सरकारी कार्यालय में सार्वजनिक तौर पर ऐसे 5, 10 आदिवासियों, दलितों के पैर तक सत्ता की धार बहाकर उनसे माफी मांगेंगे और उन्हें न्याय दिलाने की शपथ लेंगे, हर तहसील में तहसीलदार और हर थाने में थानेदार जमीन पर बैठा मिलेगा, उनके सामने कुर्सी पर वह वंचित, उपेक्षित, पीड़ित आदिवासी, दलित बैठा दिखेगा तो सच में राम राज्य सा ही दृश्य होगा।

और ऐसा जब लगातार कुछ दिनों तक होगा, तब कहीं सरकारी प्रशासन और बड़े अधिकारियों, पुलिस के आला अफसरों से लेकर सिपाहियों तक के अंदर घर बना चुकी झूठ दंभ, अहंकार, अभिमान की भावना तड़कना और दरकना शुरू होगी। तब कहीं जाकर उनके अंदर यह सच एक छोटे से पौधे की तरह उगना शुरू होगा कि सबका मालिक मैं नहीं हूं। जनता ही जनार्दन है। असली मालिक जनता ही है। और ऐसा करना क्यों जरूरी है यह भी जान लीजिए।

तो, अब बात करते हैं मध्यप्रदेश में आदिवासियों और दलितों के साथ हो रही हिंसा पर। राजनीतिक नहीं, तथ्यात्मक चर्चा। क्योंकि सीएम ने सीएम हाउस में आदिवासी के पैर धोकर एक अलग तरह का नैरेटिव सेट करने की कोशिश की है। यह बताने की कोशिश की है कि सरकार, प्रशासन आदिवासियों, दलितों के साथ है। उन्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। पर क्या वास्तव में जमीनी हालत ऐसी ही है। आइए देखते हैं। 



पहले यह रिपोर्ट देखते हैं। पिछले साल एनसीआरबी ने देश में हो रहे अपराधों पर अपनी रिपोर्ट जारी की थी। इसका एक विश्लेषण किया था एनसीएसपीए ने। National Coalition for Strengthening SCs and STs (PoA) Act (NCSPA) देश के 500 से ज्यादा दलित और आदिवासी संस्थाओं, समूहों, कार्यकर्ताओं का संगठन है। एनसीएसपीए का मानना है कि स्पष्ट संवैधानिक प्रावधानों और दिशानिर्देशों के बावजूद, देश भर में दलितों और आदिवासी समुदायों की पीड़ा सबसे खराब बनी हुई है। यह समुदाय न केवल इस अभिशाप जाति व्यवस्था का शिकार है बल्कि संस्थागत भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करता है।

अगर एनसीआरबी के आंकड़ों की ही बात करें तो 2021 में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के खिलाफ अत्याचार में 6.4% की वृद्धि हुई है। इसमें मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 29.8% मामले दर्ज हुए हैं। इस मामले में कांग्रेस शासित राजस्थान का दूसरा नंबर है। यहां 24% और ओडिशा में 7.6% मामले दर्ज किए गए हैं।

इसी तरह 2021 में अनुसूचित जाति (एससी) के खिलाफ अत्याचार या अपराध में 1.2% की वृद्धि हुई है, उत्तर प्रदेश में एससी के खिलाफ अत्याचार के सबसे अधिक मामले 25.82% दर्ज हुएए हैं, इसके बाद राजस्थान में 14.7% और मध्य प्रदेश में 14.1% की वृद्धि हुई है।

दलित और आदिवासी महिलाओं के खिलाफ हिंसा भी बढ़ी है। दर्ज कुल मामलों में से अनुसूचित जाति की महिलाओं (नाबालिगों सहित) के खिलाफ बलात्कार के मामले 7.64% और अनुसूचित जनजाति महिलाओं के खिलाफ 15% हैं। वर्ष 2021 के अंत में अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार के कुल 70,818 मामलों की जांच लंबित थी, जिसमें पिछले वर्ष के मामले भी शामिल थे। इसी तरह, एसटी के खिलाफ अत्याचार के 12,159 मामले जांच के लिए लंबित थे और एससी के खिलाफ अत्याचार के कुल 2,63,512 मामले और एसटी के खिलाफ अत्याचार के 42,512 मामले अदालत में सुनवाई के लिए आए। 

जाहिर है कि केवल एक आदिवासी को सीएम हाउस बुलाकर उसके पैर धोने और माफी मांगने से पाप नहीं धुलेंगे। इस मूत काल के प्रकाेप से पीछा छुड़ाने के लिए शायद महाकाल भी मदद न कर पाएं। और दुनिया भर का भूत, भविष्य बताने वाले प्रदेश की तमाम बाबा भी कितने ही अनुष्ठान, यज्ञ, सम्मेलन कर लें, यह दाग मिटा नहीं पाएंगे। शायद यह देश की राजनीति का दुर्भाग्य ही है कि उसे ऐसे समय में मूत काल से गुजरना पड़ रहा है जब पूरे देश में शौचालय और मूत्रालय बनाने का डंका गूंज रहा है। अगर सीधी में भी ऐसा ही एक मूत्रालय बन गया होता तो शायद 5 फीसदी चांस है कि मूत काल का अस्तित्व उसी में बह गया होता। 



लेकिन कहते हैं ना कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। कम से दशमत के लिए तो जो भी बुरा हुआ, उसके अच्छे के लिए हुआ। उसे सीएम हाउस जाने, उनके हाथों से अपने पैर धुलाने और उनके साथ खाना खाने का लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिल गया। कुछ लोग इसे सुदामा और कृष्ण के ऐतिहासिक संदर्भ से जोड़ने लगे थे। लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि इसी महाभारत में द्रोपदी का चीरहरण अपमान का ऐसा अतिरेक था जिसके नतीजे में कौरवों को अपना सब-कुछ गंवा देना पड़ा। अब यह आदिवासी समाज पर है कि वह अपने अपमान को भुलाकर सरकार को माफ कर देगा या समय आने पर इसका जवाब देगा। या फिर सरकार कुछ ऐसे कड़े कदम उठाएगी जिससे दलित, आदिवासी के साथ हो रहे अन्याय पर रोक लगेगी और ये सरकार के होने को असल में महसूस कर सकेंगे।


Monday, July 3, 2023

Sanjoy Ghose 30 साल आगे की सोचते थे, उल्फा, नेताओं, ठेकेदारों के गठजोड़ ने मार डाला

आज संजय घोष की 26वीं पुण्यतिथि है, यह वैकल्पिक मीडिया और वालंटियर सेक्टर के लिए उन्हें और उनकी सोच को याद करने का सही अवसर है





उल्फा ने 4 जुलाई 1997 को असम के माजुली में जन सहयोग से तटबंध बनाने, बचाने का काम कर रहे संजय घोष का अपहरण कर लिया। और अगले ही दिन उनकी हत्या कर शव ब्रह्मपुत्र में बहा दिया। बाद में उल्फा के केंद्रीय नेतृत्व ने अपनी गलती मानी और सार्वजनिक तौर पर माफी भी मांगी। यह मामला देश के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा में रहा। बाद में संजय की हत्या के लिए जिम्मेदार उल्फा के स्थानीय नेता को 19 जुलाई, 2008 को एक एनकाउंटर में मार दिया गया। आज उनकी हत्या के 26 साल बाद हालात ऐसे बन चुके हैं कि उनकी सोच और उनके काम को फिर याद करने की जरूरत है।

दिल्ली में 1994 में चरखा डेवलमेंट कम्यूनिकेशन नेटवर्क की शुरुआत हुई थी। संजय घोष इसके संस्थापक थे, वे समतामूलक भारत के अपने सपने को आकार देने के लिए ऐसी संस्था शुरू करना चाहते थे जो मीडिया की लोकतांत्रिक शक्ति का उपयोग देश के अनसुने, वंचित नागरिकों को आवाज देने के लिए करे। संजय ने करीब 30 साल पहले ही काफी सोच-समझकर और प्रभावी शुरुआत कर दी थी। इसलिए उनके बारे में और उनकी पहल के बारे में जानना शायद उपयोगी होगा।

आज इरमा ने संजय को उनकी 26वीं पुण्यतिथि पर याद किया

संजय  एक बहुत ही प्रभावशाली और पढ़े-लिखे परिवार से जुड़े थे। भास्कर घोष जो दूरदर्शन के महानिदेशक रहे, उनके चाचा थे। उनकी मौसी रूमा पाल सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश थीं, अरुंधति घोष, पूर्व राजनयिक और 1990 के दशक के दौरान यूएन में भारत की स्थायी प्रतिनिधि,  और पत्रकार उषा राय उनकी बुआ हैं। उनकी मां, विजया घोष, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स की संपादक हैं।  उनकी बहन सागरिका घोष मुख्यधारा की बड़ी पत्रकार और राजदीप सरदेसाई की पत्नी हैं। संजय के पिता शंकर घोष कारपोरेट सेक्टर में काफी जाने-पहचाने व्यक्ति थे। ऐसे में संजय एनजीओ, मीडिया और कॉरपोरेट तीनों ही क्षेत्र की काफी गहरी समझ रखते थे। 

अगर उनकी पढ़ाई की बात करें तो संजय 1980 में आणंद में शुरू हुए ग्रामीण प्रबंधन संस्थान, इरमा के पहले बैच में शामिल थे। जबकि उस वक्त उनका दाखिला तीनों तत्कालीन आईआईएम, अहमदाबाद, बैंगलोर और कलकत्ता में हो  सकता था। आईआईएम में शामिल होने से अच्छे भुगतान वाले कॉर्पोरेट करियर का रास्ता भी सामने था, लेकिन उन्होंने गरीब और वंचित लोगों के लिए काम करने की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए आईआईएम के बजाय नए शुरू हो रहे इरमा को चुना। 1982 में इरमा से पीजी करने के बाद वे खेड़ा जिले के आणंद में एक छोटे से ग्रामीण विकास ट्रस्ट, त्रिभुवनदास फाउंडेशन में काम करने लगे। दो साल यहां काम करने के बाद, उन्होंने 1984 में ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में एमएससी की पढ़ाई करने चले गए।


संजय और शुमिता घोष

ऑक्सफोर्ड के बाद वे भारत लौटे और 86 में राजस्थान के बीकानेर के रेगिस्तानी जिले में उर्मुल ग्रामीण स्वास्थ्य और विकास ट्रस्ट की स्थापना की। इस दौरान वे गरीबों, मरीजों, संभावित टीबी रोगियों पर काम करते थे। उर्मुल रूरल हेल्थ एंड डेवलपमेंट ट्रस्ट को राजस्थान में एक मुख्यधारा के एनजीओ के रूप में स्थापित करने के बाद, उन्होंने संगठन को एक उत्तराधिकारी को सौंप दिया, और दिल्ली चले गए।

यह भारतीय स्वैच्छिक एजेंसियों के लिए एक अभूतपूर्व निर्णय था - क्योंकि संस्थापक आमतौर पर मरने तक अपने नेतृत्व की स्थिति पर टिके रहते हैं। संजय हमेशा कहते थे कि विकास का काम करने वाले किसी भी संस्थान में 10 साल से ज्यादा नहीं रहना चाहिए। 10 साल का समय मुद्दे को समझने, स्थानीय लोगों में भरोसा जताने, उनका भरोसा जीतने और संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय नेतृत्व को तैयार करने में काफी है। 

संजय घोष ने बीकानेर के लूणकरणसर गांव में उरमूल ट्रस्ट के साथ अपने जमीनी अनुभवों के बारे में विस्तार से लिखा। द इंडियन एक्सप्रेस, ने 'विलेज वॉयस' नामक एक सफल मासिक कॉलम लॉन्च करने के लिए अपने लेखन का उपयोग किया। उन्होंने स्थानीय भाषाओं में बोली जाने वाली अनसुनी ग्रामीण आवाजों को मुख्यधारा के शहरी अंग्रेजी मीडिया में लाने में सफलता हासिल की।



ग्रामीण विकास के मुद्दों को उजागर करने और परिवर्तन या बदलाव को प्रेरित करने के लिए मुख्यधारा के मीडिया में लेखन की क्षमता को पहचानते हुए, संजय ने चरखा की कल्पना की। ग्रामीण विकास से संबंधित नीतियों को प्रभावित करने के लिए राष्ट्रीय मीडिया में अवसरों को बनाने और उनका फायदा उठाने के लिए चरखा शुरू किया गया। इसने इस चिंता को भी संबोधित किया कि इतने बड़े कार्य के लिए उनकी एकल आवाज की तुलना में अधिक समर्थन की जरूरत है।

मुझे याद है चरखा की शुरुआत में हमने चंडीगढ़ में एक बड़ी बैठक की थी, जिसमें उस समय के सभी मुख्यधारा राष्ट्रीय अखबारों के संपादक और एनजीओ सेक्टर के प्रमुख लोग शामिल थे। इनमें अवार्ड, वानी, वीहाई जैसे बड़े एनजीओ के नेटवर्क भी थे। इस बैठक में यह बात सामने आई कि विकास संचार के लिए समर्पित एक संगठन काम कर सकता है। चरखा एक मायने में "रूरल वॉयस" कॉलम के उनके अनुभव की सफलता को "संस्थागत" करने का एक प्रयास था। इस बैठक में मुख्यधारा के संपादकों, पत्रकारों और एनजीओ सेक्टर से जुड़े लोगों के बीच जो बात हुई वह शायद आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।

एनजीओ की शिकायत थी कि उनकी खबरें, उनकी सफलताएं, उनकी समस्याएं मीडिया में उतनी जगह नहीं पातीं, जितनी उन्हें मिलनी चाहिएं। वहीं मुख्यधारा मीडिया के पत्रकारों का कहना था कि एनजीओ केवल पब्लिसिटी के लिए मीडिया का स्पेस इस्तेमाल करना चाहते हैं। जब दो दिन की बैठक में उन्हें एनजीओ सेक्टर से जुड़े असल मुद्दों पर विस्तार से बताया गया तो उनका सुझाव था कि हमें एनजीओ से जुड़े लोगों में मीडिया की समझ पैदा करनी चाहिए। उन्हें मीडिया के लिए लेखन और एनजीओ के लिए लेखन का अंतर पहचानना आना चाहिए। उन्हें अपने मुद्दों की मीडिया के संदर्भ में प्रासंगिकता को समझने और लेखन कौशल सीखने की जरूरत है। 

इसके बाद संजय ने चरखा को विधिवत शुरू किया। मैंने 1995 में चरखा ज्वाइन किया, तब इसका ऑफिस दिल्ली में अवार्ड एसोसिएशन ऑफ वालंटरी एजेंसीज फॉर रूरल डेवलपमेंट के साथ था। 

चरखा शुरू करने के बाद संजय अवॉर्ड नॉर्थ ईस्ट के साथ काम करने असम के माजुली चले गए। संजय के माजुली में किए गए काम और उसके अंजाम को जानना भी सामाजिक संगठनों के लिए बेहद जरूरी है, क्योंकि ऐसे खतरे हमारे आपके सामने कभी भी आ सकते हैं। संजय ने अपने सात साथियों के साथ अप्रैल 1996 में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच बसे माजुली में काम शुरू किया।

तब माजुली द्वीप को हर साल बाढ़ और जमीन के क्षरण का सामना करना पड़ रहा था। करीब बीस वर्षों में यह द्वीप 500 वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गया था। फरवरी 1997 के आसपास, उन्होंने और उनकी टीम ने स्वैच्छिक श्रम और स्थानीय संसाधनों और उनके ज्ञान का उपयोग करते हुए, तटबंधों का निर्माण किया और 1.7 किलोमीटर भूमि के कटाव से बचा लिया। इससे अगले वर्ष द्वीप का यह संरक्षित क्षेत्र बाढ़ से बच गया। महज एक साल में संजय ने माजुली में सामाजिक गतिविधियों में भी कई काम किए, स्वास्थ्य के क्षेत्र में मलेरिया की रोकथाम), आजीविका के लिए बांस और बुने हुए उत्पादों का डिजाइन और निर्माण, और शिक्षा के लिए ग्रामीण पुस्तकालय भी बनवाया।

लेकिन इस दौरान संजय और उनके समूह ने एक शक्तिशाली स्थानीय सरकारी काम करने वाले ठेकेदार लॉबी को नाराज कर दिया था। जिस तटबंध को संजय ने ग्रामीणों की मदद से बेहद मजबूत और सस्ते में बना दिया था, उसके लिए हर साल वह ठेकेदार लॉबी सरकार ने करोड़ों का ठेका उठाती थी, कमजोर तटबंध बनाती और हर बाढ़ में उसके बह जाने पर फिर अगले साल के तटबंध का ठेका हासिल करती थी। लेकिन संजय ने मजबूत तटबंध बनाकर इस भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया था।

इस ठेकेदार लॉबी को उस समय यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) भी संरक्षण मिला हुआ था। इसी दौरान 1 जून 1997 को संजय ने ग्रामीणों की एक बड़ी सार्वजनिक बैठक की, जिसमें बड़ी संख्या में ग्रामीणों ने भागीदारी की और संजय के रचनात्मक कार्यों के साथ एकजुटता दिखाई। उस समय ठेकेदारों ने उल्फा के स्थानीय नेताओं को यह कहकर गुमराह किया कि संजय वहां उल्फा के खिलाफ लोगों को भड़काने के लिए आए हैं। उल्फा ने इसे सही मानकर संजय को कई बार सार्वजनिक धमकियां दीं। इसके बाद स्थानीय पुलिस ने उन्हें सुरक्षा दी। लेकिन संजय ने यह कहकर सुरक्षा लेने से मना कर दिया कि "स्थानीय लोग मेरी सबसे अच्छी सुरक्षा हैं"।

पर उल्फा ने 4 जुलाई 1997 को संजय का अपहरण कर लिया। और अगले ही दिन उनकी हत्या कर शव ब्रह्मपुत्र में बहा दिया। बाद में उल्फा के केंद्रीय नेतृत्व ने अपनी गलती मानी और सार्वजनिक तौर पर माफी भी मांगी। यह मामला देश के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा में रहा। बाद में संजय की हत्या के लिए जिम्मेदार उल्फा के स्थानीय नेता को 19 जुलाई, 2008 को एक एनकाउंटर में मार दिया गया। संजय के असम के काम और उनके अनुभवों पर उनकी पत्नी सुमिता घोष ने एक किताब लिखी, "संजय का असम: संजय घोष की डायरी और लेखन। इसे 1998 में पेंगुइन बुक्स ने प्रकाशित किया। अगर आज संजय जिंदा होते तो शायद आज देश में वैकल्पिक मीडिया ही मुख्य मीडिया की जगह ले चुका होता। 


Sunday, July 2, 2023

चारधाम रोड प्रोजेक्ट से जुड़े रहे डॉ रवि चोपड़ा का इंटरव्यू- सरकार पर्यटन से कमाई के लिए चारधाम यात्रा को बढ़ावा दे रही, इससे ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार बढ़ने का खतरा

 पहाड़ों पर कथित विकास नहीं रुका तो केदारनाथ और जोशीमठ जैसे कई हादसे रिपीट होंगे



खराब मौसम और तेज बारिश के चलते चार धाम यात्रा कुछ दिनों के लिए रोकी गई है। इस साल रिकॉर्ड 40 लाख लोगों ने इसके लिए रजिस्ट्रेशन कराया है। बीते दो महीने में 31 लाख 78 हजार से ज्यादा लोग दर्शन भी कर चुके हैं। कुछ ही दिन पहले केदारनाथ हादसे के 10 साल पूरे हुए हैं। ऐसे में हमने जानेमाने पर्यावरणविद् डॉ. रवि चोपड़ा से बात कर यह जानने की कोशिश की है कि आस्था और विकास के नाम पहाड़ों पर जारी गतिविधियां कितनी सुरक्षित हैं। 


डॉ. चोपड़ा उत्तराखंड चारधाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त हाई पावर कमेटी (एचपीसी) के अध्यक्ष थे। उन्होंने सड़क की चौड़ाई कम करने की अनुशंसा न मानने पर कमेटी से इस्तीफा दे दिया था। IIT बाॅम्बे और स्टीवंस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, न्यू जर्सी से पढ़ाई कर चुके डॉ चोपड़ा 2013 में केदारनाथ हादसे के बाद बनाई सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के भी अध्यक्ष थे। पढ़िए उनसे एक्सक्लूसिव इंटरव्यू ....

सरकार ने चार धाम का सफर आसान कर दिया है। सड़कें चौड़ी होने से लाेग आसानी से अपने आराध्य के धाम तक पहुंच रहे हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार 31 लाख 78 हजार से ज्यादा लोग इस साल दर्शन कर चुके हैं। लोगों के बढ़ते दबाव का चार धामों पर क्या असर पड़ेगा। खासकर इनके भाैगोलिक और पर्यावरणीय असर के संदर्भ में। 


डॉ. रवि चोपड़ा: ये चारों धाम चार नदियों के उद्गम क्षेत्र में हैं। वहां जो घाटियां हैं, वे बेहद संकीर्ण हैं। ऊंचाई पर होने और बर्फ की वजह से वनस्पतियां भी काफी संवेदनशील हैं। ऐसे इलाके में जब गाड़ियां पहुंचती हैं तो धूल के साथ उठने वाला इनका धुंआ ग्लेशियर पर कार्बन की परत बनाने लगता है। 


मैं खुद केदारनाथ गया हूं, वहां देखा है कि जमीन पर कालिख पड़ी नजर आती है। जंगलों में आग लगने से भी राख उड़कर ऐसे इलाकों की बर्फ पर जमती है। लेकिन अब बड़ा खतरा यह है कि हजारों वाहनों से निकल रहे कार्बन के बेतहाशा बढ़ने से हम कहीं खतरे के निशान काे न पार कर जाएं। यानी इससे ग्लेशियर का पिघलना ट्रिगर हो सकता है। वैज्ञानिकों की राय है कि इससे ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार बढ़ने का खतरा बढ़ेगा।


यह चिंता ऐसे समझिए। अगर यमुना को देखें तो इसके केवल दो हिमनद हैं। एक छोटा और एक बड़ा। छोटा हिमनद जल्दी गायब होगा। पर बड़े हिमनद के साथ ऐसा नहीं हाेता कि वह धीरे-धीरे पिघलेगा। इनके कुछ हिस्सों में ज्यादा बर्फ जमी होती है, कुछ में कम। मोटाई में अंतर होने से पूरा ग्लेशियर टूटने लगता है। 


खातलिंग ग्लेशियर



अगर हम खातलिंग ग्लेशियर देखें, जहां से भिलंगना नदी आती है जो टिहरी में भागीरथी में मिलती है। एक अध्ययन में हमने पाया कि इस ग्लेशियर के चार हिस्से हो चुके हैं। वहां ग्लेशियर पिघलने से कई झीलें भी बन चुकी हैं। अगर कभी ये टूट जाएं तो उसका सारा पानी नीचे आएगा, जहां तीन बांध बने हुए हैं। हम ये तमाम खतरे पैदा कर रहे हैं।


प्रश्न: चार धाम लोगों की आस्था से गहराई तक जुड़े हैं। संभवत: इसीलिए सरकार इन तक लोगों की पहुंच आसान बना रही है। क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता है कि धार्मिक आस्था भी बरकरार रहे और पहाड़ों को नुकसान भी न पहुंचाया जाए। 







डॉ. रवि चोपड़ा: आस्था की बात कह तो रहे हैं, पर यह ज्यादा दिखाई नहीं देती। इन क्षेत्रों में जाने वाले अधिकांश लोग ऐसे हैं, जिन्हें अपने फोटो, वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर करने की जल्दी दिखाई देती है। ताकि वे सबको दिखा सकें कि हम चार धाम घूमकर आ गए। मेरा और पहाड़ से जुड़े बहुत से लोगों का मानना है इन धामों पर धर्म और साैंदर्यीकरण के नाम पर जो कुछ हुआ है वह धर्म नहीं पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हो रहा है। ताकि सरकार का राजस्व बढ़े। इससे वोट बैंक भी बनता ही है। 




इससे स्थानीय लोगों की आमदनी जरूर बढ़ेगी, रोजगार भी मिलेगा, पर उनको वह खतरा भी झेलना पड़ेगा जो प्रकृति के विनाश के कारण आएगा। इन क्षेत्रों में मानवीय हादसे भी काफी बढ़ गए हैं। इसी साल चार धाम आने वाले करीब 146 लोग ऐसे हादसों में मारे जा चुके हैंं। अगर आपके पास पैसे नहीं हैं तो आप केदारनाथ हेलीकॉप्टर में नहीं, पैदल जाएंगे। बहुत से लोगों का शरीर यह कष्ट नहीं सह सकता।





वैसे भी, चौड़ी सड़कें बनाने का असर केवल मंदिरों वाले क्षेत्र में ही नहीं, पूरी नदी घाटी में होगा, ऋषिकेश से लेकर अंत तक। सड़कें चौड़ी होने से कई ऐसे स्पॉट बन गए हैं जो हमेशा के लिए भूस्खलन से त्रस्त हो जाएंगे। ऐसे इलाके पहले भी थे, पर अब बहुत से नए इलाके बन गए हैं। साथ ही जंगल घटने से जंगली जानवरों के इंसानी बस्तियों में घुसने की संभावना भी बढ़ गई है। इससे आदमी और जानवर के बीच का संघर्ष भी बढ़ेगा। 


पिछले साल आपने उत्तराखंड की चारधाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना की निगरानी के लिए बनी सुप्रीम कोर्ट हाई पावर कमेटी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। आपने ऐसे कौन से सुझाव या अनुशंसाएं की थीं कि सरकार ने उन्हें नहीं माना। सरकार की क्या मजबूरी थी। 


डॉ. रवि चोपड़ा:  उस कमेटी में करीब 22 सरकारी अधिकारी, वैज्ञानिक जिनके संस्थानों को सरकारी अनुदान मिलता है, शामिल थे। हम बस तीन गैर सरकारी वैज्ञानिक थे। हम लोगों ने करीब 35 या 36 संस्तुतियां की थीं। एक को छोड़कर बाकी सब पर सर्वसम्मति थी। असहमति केवल इस बात पर थी कि सड़क कितनी चौड़ी होनी चाहिए। 


सरकार कह रही थी कि 10 मीटर चौड़ी सड़क पर डामरीकरण होगा। यानी अगर सड़क के दोनों ओर छोड़ी जाने वाली जगह भी जोड़ें तो यह 12 और मोड़ों पर 14 मीटर तक चौड़ी सड़क होती। जाहिर है, इतनी चौड़ी सड़क के लिए पहाड़ ज्यादा काटने होंगे। इससे पहाड़, पेड़, पौधों को नुकसान होता, ढाल भी कमजोर होता। 





खास बात यह है कि हमारी यह अनुशंसा सरकारी कमेटी से ही ली गई थी। केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्रालय ने 2016 में एक कमेटी बनाई थी, 2018 में उसकी रिपोर्ट आई। इसमें वैज्ञानिकों के हवाले से कहा गया कि पांच सालों के अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि पहाड़ों में यह चौड़ाई सही नहीं है। इससे कई आपदाएं और नुकसान हो रहे हैं। इसलिए चौड़ाई केवल साढ़े पांच मीटर होनी चाहिए। हमने इसी रिपोर्ट को आधार बनाया। कहा कि जब आपके वैज्ञानिक और इंजीनियर ने अनुभव के आधार पर यह संस्तुति दी है तो यह क्यों नहीं मानी जा रही। हम इस पर अड़ गए, पूरी असहमति बस इसी एक मुद्दे पर थी। 


आपको क्या लगता है, सरकार ने इसे क्यों नहीं माना। यह तो सरकार की अपनी कमेटी की रिपोर्ट थी। आखिर सरकार पर क्या दबाव था।


डॉ. रवि चोपड़ा: आपको यह सवाल तो गडकरी जी से पूछना चाहिए। हालांकि इस संबंध में हमारा यह अनुमान है कि ऐसा नेशनल हाईवे एक्ट में किए गए एक संशोधन की वजह से किया गया। संभवत: 2012 के इस संशोधन के अनुसार अगर हाईवे की चौड़ाई 10 मीटर हो, तभी आप उसपर टोल टैक्स ले सकते हैं। मेरा अंदाज है कि टोल से राजस्व बढ़ाने के लिए सड़क की चौड़ाई बढ़ाई गई। हालांकि सरकार ने तर्क यह दिया कि चीन सीमा पर उनकी सेना खड़ी है, हमें भी सीमा तक अपनी सेना तेजी से पहुंचानी है। 


लेकिन जब कोर्ट में हमारी रिपोर्ट पर पहली सुनवाई हुई तो उसमें डिफेंस मिनिस्ट्री के वकील ने कहा, हमारे लिए तो 7 मीटर चौड़ी सड़क काफी है। वहीं केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल ने भी कहा कि हम भी 7-8 मीटर की ही बात कर रहे हैं। लेकिन बाद में वे अपनी बात से मुकर गए। 







इसके बाद परिवहन मंत्रालय ने फिर से कोर्ट में एक अपील डाली कि हमको तो 10 मीटर चौड़ी सड़क ही चाहिए। इस दूसरी सुनवाई में भी रक्षा मंत्रालय की ओर से आए एफिडेविट में 7 मीटर का ही उल्लेख था। 


तो क्या वहां टोल टैक्स के लिए नाके बनने शुरू हो गए हैं। 

डॉ. रवि चोपड़ा: मैंने सुना तो है कि बनना शुरू है। एक जगह पर तो टोल नाका बनाने के लिए सरकार ने नोटिस निकाल भी दिया है।  


इस्तीफा देने के डेढ़ साल बाद अब आपको क्या लगता है, क्या अभी भी वापस लौटा जा सकता है या अब स्थिति नियंत्रण के बाहर हो चुकी है। 


डॉ. रवि चोपड़ा: कुछ हिस्सों में तो स्थिति इतनी संवेदनशील हो गई है कि उनकाे ठीक करना अब बड़ा कठिन है। 1962 के युद्ध के बाद भी सड़कें बनी थीं। तब भी कुछ ऐसी जगहों पर सड़कें बनीं, जहां शुरू हुए भूस्खलन आज तक नहीं रुक पाए हैं। सरकार ने इससे जुड़ी रिसर्च पर ही कई सौ करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं। इन्हें दुरुस्त करने का खर्च तो अलग ही है। इसके बाद भी सरकार भूस्खलन नहीं रोक पाई। अब तो भूस्खलन वाले ऐसे बहुत से नए क्षेत्र बन गए हैं। 

हाल ही में 17 जून को केदारनाथ हादसे के 10 साल पूरे हुए। इस हादसे के बाद आपकी अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी, इसमें आपने 23 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को हटाने की मांग की थी। आज उत्तराखंड में ऐसी कुल कितने बांध या बड़े प्रोजेक्ट सक्रिय हैं। 


डॉ. रवि चोपड़ा: इसमें एक स्पष्टीकरण जरूरी है। केदारनाथ हादसे के बाद कोर्ट ने एक कमेटी बनाई और हमें कुछ सवाल दिए थे, हमें उनपर अपनी रिपोर्ट देनी थी कि क्या परिस्थिति थी और क्या होना चाहिए। हमें अलकनंदा और भागीरथी बेसिन के बांधों पर अध्ययन करना था। तब वहां कुल 70 बांध थे। इनमें से 2013 तक 19 बांध बन चुके थे, 51 प्रस्तावित थे। 


सरकार के मुताबिक इन 51 में से 7 बांधों पर आधे से ज्यादा काम हो चुका था, यानी 44 बांध ही बनने बाकी थे। कोर्ट ने अपने आदेश में भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट का जिक्र किया था, जिसने 24 बांधों पर पुनर्विचार की बात कही थी। इस रिपोर्ट पर कोर्ट ने हमारी राय भी मांगी थी। इन्हीं 24 बांधों पर हमने कहा था कि इनमें से 23 नहीं बनने चाहिएं। क्योंकि इनसे इलाके की वाइल्ड लाइफ और बॉयोडायवर्सिटी पर काफी बुरा प्रभाव पड़ेगा। 


अगर हम पहाड़ों पर बांधों की बात करें तो हमारे यहां 2013 से पहले करीब 452 बांधों की योजना बनी थी। उत्तराखंड के संदर्भ में 5 मेगावाट से ज्यादा क्षमता वाले बांधों को बड़े बांध मानना चाहिए। इस हिसाब से उत्तराखंड में करीब 150 से 200 के बीच में ऐसे बांध होंगे। केदारनाथ हादसे के बाद अपनी रिसर्च में हमने पैराग्लेशियल जोन में ऐसे चार बड़े बांध उनके इलाकों में जाकर देखे। 


ये ऊंचाई पर ऐसी संकरी घाटियां हैं, जहां पहले कभी ग्लेशियर थे। जैसे-जैसे ग्लेशियर पीछे हटते गए, खूब सारा मलबा, पत्थर, चट्‌टानें आदि पहाड़ों पर छूटते चले गए। 2013 में जो रिकॉर्डतोड़ बारिश हुई, उसने घाटियों में मौजूद इस मलबे को अपना साथ बहाना शुरू कर दिया। संकीर्ण घाटी की वजह से मलबा कई जगह इकट्‌ठा हो गया और वहां अस्थायी बांध बन गए। लेकिन पीछे से लगातार आ रहे पानी के दबाव से ये बांध भी टूटते चले गए।





जोशीमठ और बदरीनाथ के बीच में मौजूद विष्णुप्रयाग बांध तो पूरी तरह ध्वस्त हो गया था। इसी तरह सोनप्रयाग में मंदाकिनी नदी पर 76 मेगावाट का एक छोटा बांध था, वहां केदारनाथ से इतना ज्यादा मलबा आया कि नदी का तल करीब 30 मीटर ऊपर उठ गया। बांध पूरी तरह गायब हो गया। इन्हीं के आधार पर हमने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि नए बांध नहीं बनने चाहिएं। 


कहावत है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। अगर सरकार बांध बनाकर पानी और विकास योजनाओं से जवानी को पहाड़ के काम आने की कोशिश कर रही है, तो इसमें क्या दिक्कत है। 


डॉ. रवि चोपड़ा: इसी सवाल को सरकार दूसरे ढंग से पेश करती है। सरकार कहती है कि अगर हम बांध बनाएंगे तो इलाके में बहुत डेवलपमेंट होगा। लोगों की आमदनी बढ़ेगी, पलायन कम होगा। इसकी असलियत मैं दिखाता हूं। अगर हम जिलेवार प्रति व्यक्ति आमदनी की बात करें तो आंकड़े यह बताते हैं कि हरिद्वार, देहरादून और उधमसिंह नगर में यह राज्य के औसत से ज्यादा है। 


ये तीनों मैदानी क्षेत्र हैं। जबकि पहाड़ के सभी जिलों में ये राज्य के औसत से काफी कम है। जबकि टिहरी बांध 2005 में कमीशन हुआ, वहीं उत्तरकाशी में मनेरी भाली 1 बांध 1 1984 में कमीशन हुआ और मनेरी भाली 2 2008 में कमीशन हुआ था। इतने सालों बाद भी टिहरी या उत्तरकाशी में औसत आमदनी राज्य से काफी कम है। अगर बांध से विकास हो रहा है तो ये आंकड़े क्यों नहीं बढ़ रहे।




इसी तरह अगर हम पॉपुलेशन ग्राेथ रेट देखें, तो साफ दिखता है कि हरिद्वार, देहरादून, उधमसिंह नगर और नैनीताल जैसे जिलों में ही आबादी बढ़ रही है। नैनीताल का भी कुछ हिस्सा मैदानी है। इनकी औसत आबादी राज्य के औसत से ज्यादा बढ़ रही है। जबकि बांध वाले टिहरी गढ़वाल या उत्तरकाशी जैसे जिलों में आबादी की बढ़त औसत से काफी कम है। इससे जाहिर है कि यहां से पलायन हो रहा है।




पांच साल पहले 11 अक्टूबर 2018 को प्रो. जीडी अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ने 112 दिनों के अनशन के बाद प्राण त्याग दिए थे। सरकार ने गंगा को अविरल बहने देने के लिए भागीरथी, अलकनंदा आदि नदियों पर बन रहे और प्रस्तावित प्रोजेक्ट रद्द करने और जंगल काटने से रोकने संबंधी नोटिफिकेशन की उनकी मांग नहीं मानी थी। उनकी इन मांगों की आज जमीन पर क्या स्थिति है। 


डॉ. रवि चोपड़ा: जिस दिन स्वामी सानंद ने प्राण त्यागे, उससे एक दिन पहले केंद्र सरकार की ओर से एक नोटिफिकेशन आया था। इसमें कहा गया था कि गंगा को अविरल बहने के लिए पर्यावरणीय प्रवाह छोड़ा जाएगा। लेकिन स्वामी जी इस नोटिफिकेशन और इसमें बहाव की बताई गई मात्रा से संतुष्ट नहीं थे। 


इससे आहत होकर उन्होंने घोषणा की कि वे पानी भी नहीं पीएंगे। इसके अगले ही दिन उनका निधन हो गया। तब से आज तक इस बात का कोई सबूत नहीं है कि पर्यावरणीय प्रवाह छोड़ा जा रहा है, जिसकी स्वामी जी ने मांग की थी। छोड़ा भी जा रहा हो तो इसका कोई मॉनिटरिंग सिस्टम हमें नजर नहीं आता। जनता के बीच इसका कोई डेटा नहीं बताया जाता। खनन भी जारी है। 


क्या ऐसे लोगों के बलिदान का सरकार पर कोई सामाजिक या नैतिक असर नहीं पड़ता। 


डॉ. रवि चोपड़ा: समय समय पर परिस्थितियां बदलती भी हैं। स्वामी सानंद ने जून 2008 में पहला अनशन 13 दिन का किया था। तब मनमोहन सिंह पीएम थे और जयराम रमेश पर्यावरण मंत्री थे। उन पर असर हुआ कि एक बुजुर्ग साइंटिस्ट अपनी जान देने को तैयार है, तो उन्होंने प्रयास किए। इसका नतीजा यह हुआ कि 2009 में तीन बांध निरस्त करने का निर्णय लिया गया। इनमें भैरों घाटी, लोहारी नाथपाला जो उस समय बन रहा थी, और उसके नीचे पाला मनेरी बांध के काम और नहीं बढ़ाए गए। 


साथ ही उत्तरकाशी से गौमुख तक का इलाका इको सेंसिटिव घोषित कर वहां किसी भी तरह के बांध न बनाने का निर्णय लिया गया। राज्य सरकारों (भाजपा, कांग्रेस दोनों) के विरोध के बाद भी केंद्र ने इस संबंध में अपना फैसला नहीं बदला। आज यह नदी घाटी दूसरे क्षेत्र से काफी ज्यादा खूबसूरत और जैव विविधता से लैस है। सरकारें बदलती हैं तो ऐसे फैसले भी बदलते हैं। इसलिए संघर्ष करते रहना चाहिए।


आज जोशीमठ धंस रहा है। लोग परेशान हैं। इसे लेकर कई तरह की धार्मिक मान्यताएं भी चल रही हैं। बतौर वैज्ञानिक आप इसके लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं। क्या आने वाले समय में हमें ऐसे कई जोशीमठ देखने की आशंका है। इससे बचने के क्या उपाय हैं।


डॉ. रवि चोपड़ा: अगर वहां जाकर वैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करें तो चिंता जरूर होगी। यह केवल जोशीमठ तक सीमित मामला नहीं है। बदरीनाथ में नर और नारायण पर्वतों के बीच काफी समतल हिस्सा है, वहां पहले कम संख्या में लोग जाते थे। अब वहां लोगों की संख्या बढ़ गई है। वहां पूरी टाउनशिप बनाने की योजना है। बड़ी पार्किंग होंगी, बड़े, ऊंचे होटल्स बनेंगे। ऐसे में तो हम प्रलय को न्यौता दे रहे हैं। 


उस घाटी का तल पहाड़ों से आने वाले पत्थरों से बना है। ठोस तल नहीं हैं। वहां भूकंप भी आते रहते हैं, वह भूकंप के जोन 5 में आने वाला बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। वहां लोग बढ़ेंगे तो पानी का दोहन भी होगा, गंदा पानी कहां जाएगा, यह भी सोचने वाली बात है। धार्मिक स्थल भी कहते हैं पर अपनी नदियों की हालत हम ही खराब कर रहे हैं। 


मान्यता है कि भागीरथ गंगा को स्वर्ग उतारने में सफल हुए थे। गंगा की धार से पृथ्वी को बचाने के लिए शिवजी ने जटाओं का उपयोग किया। आज पहाड़ों पर बारिश होते ही तेज बहाव से सड़कों के कटने और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं, दूसरी ओर सरकार गंगा समेत तमाम नदियों को पहाड़ाें पर ही रोकने में जुटी हुई है। इन विकास कार्यक्रमों का नदियों के भविष्य और खासकर मैदानी इलाकों में नदियों पर निर्भर लोगाें के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा।

डॉ. रवि चोपड़ा: हम यह सोच सकते हैं कि शिव जी की जटाएं यहां के जंगल हैं। बारिश हो, या बर्फ गिरे, जंगल इनकी रफ्तार धीमी कर देते हैं। मिट्‌टी का बहना भी कम हो जाता है। लेकिन अब हम जमीन, पेड़ काट रहे हैं, इससे पानी की गति कम नहीं हो पाती और वह तेजी से बहुत कुछ अपने साथ बहा ले जाता है। 


लेकिन अगर हम नदी को रोकने की कोशिश करेंगे प्रकृति का कोप झेलना होगा। हम एक तरफ प्रकृति को मां मानते हैं और दूसरी तरफ उससे छेड़छाड़ भी करते हैं। एक मां की तरह वह भी हमारे इन कारनामों को बच्चे के खेल की तरह लेती है और एक हद तक बर्दाश्त भी करती है। जब मां को गुस्सा आता है तो थप्पड़ भी पड़ता है। अगर प्रकृति का बहुत दोहन होगा तो वह आपको सबक सिखाएगी। ्र


जहां तक मैदानी इलाकों की बात है तो कई भ्रांतियों को दूर करना जरूरी है। लोगों को ऐसा लगता है कि भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी जैसी सारी नदियां हिमनद से निकल रही हैं। नीचे आ रहा सारा पानी हिमनद का मानते हैं। जबकि हकीकत यह है कि इसमें हिमनद के पानी की मात्रा बहुत कम है। देवप्रयाग जहां से भागीरथी और अलकनंदा मिलकर गंगा के नाम से बहती हैं, वहां पूरे साल का बहाव नापने के वैज्ञानिक रिसर्च के मुताबिक इसमें हिमनद का हिस्सा केवल 27 प्रतिशत ही है। बाकी सारा पानी बारिश का है जो धीरे-धीरे रिसकर नदी में आता है। 


ऐसे में हमें छोटे या बड़े सभी पहाड़ों पर जंगलों को बचाने की जरूरत है। ताकि बारिश का पानी इनमें जाए और धीरे-धीरे रिसकर नदी में आए। ऐसा न करने पर नदियों का पानी कम होता जाएगा और मैदानी इलाकों में भी संकट की स्थिति बन सकती है। खासकर गंगा में पानी कम होता जा रहा है। IIT खड़गपुर के एक रिसर्च के मुताबिक 70 के दशक से 2015-15 तक लोअर गंगा बेसिन में गर्मियों में गंगा में पानी की मात्रा 60 फीसदी कम हो गई है।


पीएम मोदी कहते हैं कि पर्यावरण की रक्षा हमारे लिए आस्था का विषय है। हाल ही में अमेरिका यात्रा में उन्होंने कहा कहा कि हम दोहन में विश्वास नहीं करते। इस बयान के संदर्भ में आप पहाड़ों में जारी विकास योजनाओं को लेकर क्या कहेंगे। 


डॉ. रवि चोपड़ा: देखिए, कथनी बड़ी आसान है। पर कथनी और करनी में तो जमीन आसमान का अंतर है। जितने भी हमारे पर्यावरण संरक्षण वाले कानून हैं, वे बनने के बाद धीरे-धीरे लचीले होते जा रहे हैं। सरकार उनको और कमजोर करती जा रही है। क्योंकि उसको विकास चाहिए। सरकारें चाहे अभी की तो पहले की, सभी यही काम करती रही हैं। 


ये सभी पर्यावरण विरोधी सरकारें हैं। ये केवल इकोनाॅमिक ग्रोथ चाहती हैं। मैं उसे डेवलपमेंट नहीं कहता। क्योंकि जिन संसाधनों के आधार पर इकोनॉमिक ग्रोथ की जा रही है, उनका सत्यानाश करते जा रहे हैं। इस ग्रोथ से कुछ लोगों को ही फायदा हाे रहा है। अगर विकास हो रहा होता तो 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की जरूरत क्यों पड़ती। इतनी गरीबी क्यों बनी हुई है। सरकार को इस सवाल का जवाब देना चाहिए।

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है, इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

पहले मशहूर शायर शहरयार की यह ग़ज़ल पढ़िए... सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है दिल है तो धड़कने...