खराब मौसम और तेज बारिश के चलते चार धाम यात्रा कुछ दिनों के लिए रोकी गई है। इस साल रिकॉर्ड 40 लाख लोगों ने इसके लिए रजिस्ट्रेशन कराया है। बीते दो महीने में 31 लाख 78 हजार से ज्यादा लोग दर्शन भी कर चुके हैं। कुछ ही दिन पहले केदारनाथ हादसे के 10 साल पूरे हुए हैं। ऐसे में हमने जानेमाने पर्यावरणविद् डॉ. रवि चोपड़ा से बात कर यह जानने की कोशिश की है कि आस्था और विकास के नाम पहाड़ों पर जारी गतिविधियां कितनी सुरक्षित हैं।
डॉ. चोपड़ा उत्तराखंड चारधाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त हाई पावर कमेटी (एचपीसी) के अध्यक्ष थे। उन्होंने सड़क की चौड़ाई कम करने की अनुशंसा न मानने पर कमेटी से इस्तीफा दे दिया था। IIT बाॅम्बे और स्टीवंस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, न्यू जर्सी से पढ़ाई कर चुके डॉ चोपड़ा 2013 में केदारनाथ हादसे के बाद बनाई सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के भी अध्यक्ष थे। पढ़िए उनसे एक्सक्लूसिव इंटरव्यू ....
सरकार ने चार धाम का सफर आसान कर दिया है। सड़कें चौड़ी होने से लाेग आसानी से अपने आराध्य के धाम तक पहुंच रहे हैं। ताजा रिपोर्ट के अनुसार 31 लाख 78 हजार से ज्यादा लोग इस साल दर्शन कर चुके हैं। लोगों के बढ़ते दबाव का चार धामों पर क्या असर पड़ेगा। खासकर इनके भाैगोलिक और पर्यावरणीय असर के संदर्भ में।
डॉ. रवि चोपड़ा: ये चारों धाम चार नदियों के उद्गम क्षेत्र में हैं। वहां जो घाटियां हैं, वे बेहद संकीर्ण हैं। ऊंचाई पर होने और बर्फ की वजह से वनस्पतियां भी काफी संवेदनशील हैं। ऐसे इलाके में जब गाड़ियां पहुंचती हैं तो धूल के साथ उठने वाला इनका धुंआ ग्लेशियर पर कार्बन की परत बनाने लगता है।
मैं खुद केदारनाथ गया हूं, वहां देखा है कि जमीन पर कालिख पड़ी नजर आती है। जंगलों में आग लगने से भी राख उड़कर ऐसे इलाकों की बर्फ पर जमती है। लेकिन अब बड़ा खतरा यह है कि हजारों वाहनों से निकल रहे कार्बन के बेतहाशा बढ़ने से हम कहीं खतरे के निशान काे न पार कर जाएं। यानी इससे ग्लेशियर का पिघलना ट्रिगर हो सकता है। वैज्ञानिकों की राय है कि इससे ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार बढ़ने का खतरा बढ़ेगा।
यह चिंता ऐसे समझिए। अगर यमुना को देखें तो इसके केवल दो हिमनद हैं। एक छोटा और एक बड़ा। छोटा हिमनद जल्दी गायब होगा। पर बड़े हिमनद के साथ ऐसा नहीं हाेता कि वह धीरे-धीरे पिघलेगा। इनके कुछ हिस्सों में ज्यादा बर्फ जमी होती है, कुछ में कम। मोटाई में अंतर होने से पूरा ग्लेशियर टूटने लगता है।
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खातलिंग ग्लेशियर |
अगर हम खातलिंग ग्लेशियर देखें, जहां से भिलंगना नदी आती है जो टिहरी में भागीरथी में मिलती है। एक अध्ययन में हमने पाया कि इस ग्लेशियर के चार हिस्से हो चुके हैं। वहां ग्लेशियर पिघलने से कई झीलें भी बन चुकी हैं। अगर कभी ये टूट जाएं तो उसका सारा पानी नीचे आएगा, जहां तीन बांध बने हुए हैं। हम ये तमाम खतरे पैदा कर रहे हैं।
प्रश्न: चार धाम लोगों की आस्था से गहराई तक जुड़े हैं। संभवत: इसीलिए सरकार इन तक लोगों की पहुंच आसान बना रही है। क्या कोई ऐसा तरीका हो सकता है कि धार्मिक आस्था भी बरकरार रहे और पहाड़ों को नुकसान भी न पहुंचाया जाए।
डॉ. रवि चोपड़ा: आस्था की बात कह तो रहे हैं, पर यह ज्यादा दिखाई नहीं देती। इन क्षेत्रों में जाने वाले अधिकांश लोग ऐसे हैं, जिन्हें अपने फोटो, वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर करने की जल्दी दिखाई देती है। ताकि वे सबको दिखा सकें कि हम चार धाम घूमकर आ गए। मेरा और पहाड़ से जुड़े बहुत से लोगों का मानना है इन धामों पर धर्म और साैंदर्यीकरण के नाम पर जो कुछ हुआ है वह धर्म नहीं पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हो रहा है। ताकि सरकार का राजस्व बढ़े। इससे वोट बैंक भी बनता ही है।
इससे स्थानीय लोगों की आमदनी जरूर बढ़ेगी, रोजगार भी मिलेगा, पर उनको वह खतरा भी झेलना पड़ेगा जो प्रकृति के विनाश के कारण आएगा। इन क्षेत्रों में मानवीय हादसे भी काफी बढ़ गए हैं। इसी साल चार धाम आने वाले करीब 146 लोग ऐसे हादसों में मारे जा चुके हैंं। अगर आपके पास पैसे नहीं हैं तो आप केदारनाथ हेलीकॉप्टर में नहीं, पैदल जाएंगे। बहुत से लोगों का शरीर यह कष्ट नहीं सह सकता।
वैसे भी, चौड़ी सड़कें बनाने का असर केवल मंदिरों वाले क्षेत्र में ही नहीं, पूरी नदी घाटी में होगा, ऋषिकेश से लेकर अंत तक। सड़कें चौड़ी होने से कई ऐसे स्पॉट बन गए हैं जो हमेशा के लिए भूस्खलन से त्रस्त हो जाएंगे। ऐसे इलाके पहले भी थे, पर अब बहुत से नए इलाके बन गए हैं। साथ ही जंगल घटने से जंगली जानवरों के इंसानी बस्तियों में घुसने की संभावना भी बढ़ गई है। इससे आदमी और जानवर के बीच का संघर्ष भी बढ़ेगा।
पिछले साल आपने उत्तराखंड की चारधाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना की निगरानी के लिए बनी सुप्रीम कोर्ट हाई पावर कमेटी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। आपने ऐसे कौन से सुझाव या अनुशंसाएं की थीं कि सरकार ने उन्हें नहीं माना। सरकार की क्या मजबूरी थी।
डॉ. रवि चोपड़ा: उस कमेटी में करीब 22 सरकारी अधिकारी, वैज्ञानिक जिनके संस्थानों को सरकारी अनुदान मिलता है, शामिल थे। हम बस तीन गैर सरकारी वैज्ञानिक थे। हम लोगों ने करीब 35 या 36 संस्तुतियां की थीं। एक को छोड़कर बाकी सब पर सर्वसम्मति थी। असहमति केवल इस बात पर थी कि सड़क कितनी चौड़ी होनी चाहिए।
सरकार कह रही थी कि 10 मीटर चौड़ी सड़क पर डामरीकरण होगा। यानी अगर सड़क के दोनों ओर छोड़ी जाने वाली जगह भी जोड़ें तो यह 12 और मोड़ों पर 14 मीटर तक चौड़ी सड़क होती। जाहिर है, इतनी चौड़ी सड़क के लिए पहाड़ ज्यादा काटने होंगे। इससे पहाड़, पेड़, पौधों को नुकसान होता, ढाल भी कमजोर होता।
खास बात यह है कि हमारी यह अनुशंसा सरकारी कमेटी से ही ली गई थी। केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्रालय ने 2016 में एक कमेटी बनाई थी, 2018 में उसकी रिपोर्ट आई। इसमें वैज्ञानिकों के हवाले से कहा गया कि पांच सालों के अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि पहाड़ों में यह चौड़ाई सही नहीं है। इससे कई आपदाएं और नुकसान हो रहे हैं। इसलिए चौड़ाई केवल साढ़े पांच मीटर होनी चाहिए। हमने इसी रिपोर्ट को आधार बनाया। कहा कि जब आपके वैज्ञानिक और इंजीनियर ने अनुभव के आधार पर यह संस्तुति दी है तो यह क्यों नहीं मानी जा रही। हम इस पर अड़ गए, पूरी असहमति बस इसी एक मुद्दे पर थी।
आपको क्या लगता है, सरकार ने इसे क्यों नहीं माना। यह तो सरकार की अपनी कमेटी की रिपोर्ट थी। आखिर सरकार पर क्या दबाव था।
डॉ. रवि चोपड़ा: आपको यह सवाल तो गडकरी जी से पूछना चाहिए। हालांकि इस संबंध में हमारा यह अनुमान है कि ऐसा नेशनल हाईवे एक्ट में किए गए एक संशोधन की वजह से किया गया। संभवत: 2012 के इस संशोधन के अनुसार अगर हाईवे की चौड़ाई 10 मीटर हो, तभी आप उसपर टोल टैक्स ले सकते हैं। मेरा अंदाज है कि टोल से राजस्व बढ़ाने के लिए सड़क की चौड़ाई बढ़ाई गई। हालांकि सरकार ने तर्क यह दिया कि चीन सीमा पर उनकी सेना खड़ी है, हमें भी सीमा तक अपनी सेना तेजी से पहुंचानी है।
लेकिन जब कोर्ट में हमारी रिपोर्ट पर पहली सुनवाई हुई तो उसमें डिफेंस मिनिस्ट्री के वकील ने कहा, हमारे लिए तो 7 मीटर चौड़ी सड़क काफी है। वहीं केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल ने भी कहा कि हम भी 7-8 मीटर की ही बात कर रहे हैं। लेकिन बाद में वे अपनी बात से मुकर गए।
इसके बाद परिवहन मंत्रालय ने फिर से कोर्ट में एक अपील डाली कि हमको तो 10 मीटर चौड़ी सड़क ही चाहिए। इस दूसरी सुनवाई में भी रक्षा मंत्रालय की ओर से आए एफिडेविट में 7 मीटर का ही उल्लेख था।
तो क्या वहां टोल टैक्स के लिए नाके बनने शुरू हो गए हैं।
डॉ. रवि चोपड़ा: मैंने सुना तो है कि बनना शुरू है। एक जगह पर तो टोल नाका बनाने के लिए सरकार ने नोटिस निकाल भी दिया है।
इस्तीफा देने के डेढ़ साल बाद अब आपको क्या लगता है, क्या अभी भी वापस लौटा जा सकता है या अब स्थिति नियंत्रण के बाहर हो चुकी है।
डॉ. रवि चोपड़ा: कुछ हिस्सों में तो स्थिति इतनी संवेदनशील हो गई है कि उनकाे ठीक करना अब बड़ा कठिन है। 1962 के युद्ध के बाद भी सड़कें बनी थीं। तब भी कुछ ऐसी जगहों पर सड़कें बनीं, जहां शुरू हुए भूस्खलन आज तक नहीं रुक पाए हैं। सरकार ने इससे जुड़ी रिसर्च पर ही कई सौ करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं। इन्हें दुरुस्त करने का खर्च तो अलग ही है। इसके बाद भी सरकार भूस्खलन नहीं रोक पाई। अब तो भूस्खलन वाले ऐसे बहुत से नए क्षेत्र बन गए हैं।
हाल ही में 17 जून को केदारनाथ हादसे के 10 साल पूरे हुए। इस हादसे के बाद आपकी अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी, इसमें आपने 23 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को हटाने की मांग की थी। आज उत्तराखंड में ऐसी कुल कितने बांध या बड़े प्रोजेक्ट सक्रिय हैं।
डॉ. रवि चोपड़ा: इसमें एक स्पष्टीकरण जरूरी है। केदारनाथ हादसे के बाद कोर्ट ने एक कमेटी बनाई और हमें कुछ सवाल दिए थे, हमें उनपर अपनी रिपोर्ट देनी थी कि क्या परिस्थिति थी और क्या होना चाहिए। हमें अलकनंदा और भागीरथी बेसिन के बांधों पर अध्ययन करना था। तब वहां कुल 70 बांध थे। इनमें से 2013 तक 19 बांध बन चुके थे, 51 प्रस्तावित थे।
सरकार के मुताबिक इन 51 में से 7 बांधों पर आधे से ज्यादा काम हो चुका था, यानी 44 बांध ही बनने बाकी थे। कोर्ट ने अपने आदेश में भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट का जिक्र किया था, जिसने 24 बांधों पर पुनर्विचार की बात कही थी। इस रिपोर्ट पर कोर्ट ने हमारी राय भी मांगी थी। इन्हीं 24 बांधों पर हमने कहा था कि इनमें से 23 नहीं बनने चाहिएं। क्योंकि इनसे इलाके की वाइल्ड लाइफ और बॉयोडायवर्सिटी पर काफी बुरा प्रभाव पड़ेगा।
अगर हम पहाड़ों पर बांधों की बात करें तो हमारे यहां 2013 से पहले करीब 452 बांधों की योजना बनी थी। उत्तराखंड के संदर्भ में 5 मेगावाट से ज्यादा क्षमता वाले बांधों को बड़े बांध मानना चाहिए। इस हिसाब से उत्तराखंड में करीब 150 से 200 के बीच में ऐसे बांध होंगे। केदारनाथ हादसे के बाद अपनी रिसर्च में हमने पैराग्लेशियल जोन में ऐसे चार बड़े बांध उनके इलाकों में जाकर देखे।
ये ऊंचाई पर ऐसी संकरी घाटियां हैं, जहां पहले कभी ग्लेशियर थे। जैसे-जैसे ग्लेशियर पीछे हटते गए, खूब सारा मलबा, पत्थर, चट्टानें आदि पहाड़ों पर छूटते चले गए। 2013 में जो रिकॉर्डतोड़ बारिश हुई, उसने घाटियों में मौजूद इस मलबे को अपना साथ बहाना शुरू कर दिया। संकीर्ण घाटी की वजह से मलबा कई जगह इकट्ठा हो गया और वहां अस्थायी बांध बन गए। लेकिन पीछे से लगातार आ रहे पानी के दबाव से ये बांध भी टूटते चले गए।
जोशीमठ और बदरीनाथ के बीच में मौजूद विष्णुप्रयाग बांध तो पूरी तरह ध्वस्त हो गया था। इसी तरह सोनप्रयाग में मंदाकिनी नदी पर 76 मेगावाट का एक छोटा बांध था, वहां केदारनाथ से इतना ज्यादा मलबा आया कि नदी का तल करीब 30 मीटर ऊपर उठ गया। बांध पूरी तरह गायब हो गया। इन्हीं के आधार पर हमने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि नए बांध नहीं बनने चाहिएं।
कहावत है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। अगर सरकार बांध बनाकर पानी और विकास योजनाओं से जवानी को पहाड़ के काम आने की कोशिश कर रही है, तो इसमें क्या दिक्कत है।
डॉ. रवि चोपड़ा: इसी सवाल को सरकार दूसरे ढंग से पेश करती है। सरकार कहती है कि अगर हम बांध बनाएंगे तो इलाके में बहुत डेवलपमेंट होगा। लोगों की आमदनी बढ़ेगी, पलायन कम होगा। इसकी असलियत मैं दिखाता हूं। अगर हम जिलेवार प्रति व्यक्ति आमदनी की बात करें तो आंकड़े यह बताते हैं कि हरिद्वार, देहरादून और उधमसिंह नगर में यह राज्य के औसत से ज्यादा है।
ये तीनों मैदानी क्षेत्र हैं। जबकि पहाड़ के सभी जिलों में ये राज्य के औसत से काफी कम है। जबकि टिहरी बांध 2005 में कमीशन हुआ, वहीं उत्तरकाशी में मनेरी भाली 1 बांध 1 1984 में कमीशन हुआ और मनेरी भाली 2 2008 में कमीशन हुआ था। इतने सालों बाद भी टिहरी या उत्तरकाशी में औसत आमदनी राज्य से काफी कम है। अगर बांध से विकास हो रहा है तो ये आंकड़े क्यों नहीं बढ़ रहे।
इसी तरह अगर हम पॉपुलेशन ग्राेथ रेट देखें, तो साफ दिखता है कि हरिद्वार, देहरादून, उधमसिंह नगर और नैनीताल जैसे जिलों में ही आबादी बढ़ रही है। नैनीताल का भी कुछ हिस्सा मैदानी है। इनकी औसत आबादी राज्य के औसत से ज्यादा बढ़ रही है। जबकि बांध वाले टिहरी गढ़वाल या उत्तरकाशी जैसे जिलों में आबादी की बढ़त औसत से काफी कम है। इससे जाहिर है कि यहां से पलायन हो रहा है।
पांच साल पहले 11 अक्टूबर 2018 को प्रो. जीडी अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ने 112 दिनों के अनशन के बाद प्राण त्याग दिए थे। सरकार ने गंगा को अविरल बहने देने के लिए भागीरथी, अलकनंदा आदि नदियों पर बन रहे और प्रस्तावित प्रोजेक्ट रद्द करने और जंगल काटने से रोकने संबंधी नोटिफिकेशन की उनकी मांग नहीं मानी थी। उनकी इन मांगों की आज जमीन पर क्या स्थिति है।
डॉ. रवि चोपड़ा: जिस दिन स्वामी सानंद ने प्राण त्यागे, उससे एक दिन पहले केंद्र सरकार की ओर से एक नोटिफिकेशन आया था। इसमें कहा गया था कि गंगा को अविरल बहने के लिए पर्यावरणीय प्रवाह छोड़ा जाएगा। लेकिन स्वामी जी इस नोटिफिकेशन और इसमें बहाव की बताई गई मात्रा से संतुष्ट नहीं थे।
इससे आहत होकर उन्होंने घोषणा की कि वे पानी भी नहीं पीएंगे। इसके अगले ही दिन उनका निधन हो गया। तब से आज तक इस बात का कोई सबूत नहीं है कि पर्यावरणीय प्रवाह छोड़ा जा रहा है, जिसकी स्वामी जी ने मांग की थी। छोड़ा भी जा रहा हो तो इसका कोई मॉनिटरिंग सिस्टम हमें नजर नहीं आता। जनता के बीच इसका कोई डेटा नहीं बताया जाता। खनन भी जारी है।
क्या ऐसे लोगों के बलिदान का सरकार पर कोई सामाजिक या नैतिक असर नहीं पड़ता।
डॉ. रवि चोपड़ा: समय समय पर परिस्थितियां बदलती भी हैं। स्वामी सानंद ने जून 2008 में पहला अनशन 13 दिन का किया था। तब मनमोहन सिंह पीएम थे और जयराम रमेश पर्यावरण मंत्री थे। उन पर असर हुआ कि एक बुजुर्ग साइंटिस्ट अपनी जान देने को तैयार है, तो उन्होंने प्रयास किए। इसका नतीजा यह हुआ कि 2009 में तीन बांध निरस्त करने का निर्णय लिया गया। इनमें भैरों घाटी, लोहारी नाथपाला जो उस समय बन रहा थी, और उसके नीचे पाला मनेरी बांध के काम और नहीं बढ़ाए गए।
साथ ही उत्तरकाशी से गौमुख तक का इलाका इको सेंसिटिव घोषित कर वहां किसी भी तरह के बांध न बनाने का निर्णय लिया गया। राज्य सरकारों (भाजपा, कांग्रेस दोनों) के विरोध के बाद भी केंद्र ने इस संबंध में अपना फैसला नहीं बदला। आज यह नदी घाटी दूसरे क्षेत्र से काफी ज्यादा खूबसूरत और जैव विविधता से लैस है। सरकारें बदलती हैं तो ऐसे फैसले भी बदलते हैं। इसलिए संघर्ष करते रहना चाहिए।
आज जोशीमठ धंस रहा है। लोग परेशान हैं। इसे लेकर कई तरह की धार्मिक मान्यताएं भी चल रही हैं। बतौर वैज्ञानिक आप इसके लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं। क्या आने वाले समय में हमें ऐसे कई जोशीमठ देखने की आशंका है। इससे बचने के क्या उपाय हैं।
डॉ. रवि चोपड़ा: अगर वहां जाकर वैज्ञानिक रूप से विश्लेषण करें तो चिंता जरूर होगी। यह केवल जोशीमठ तक सीमित मामला नहीं है। बदरीनाथ में नर और नारायण पर्वतों के बीच काफी समतल हिस्सा है, वहां पहले कम संख्या में लोग जाते थे। अब वहां लोगों की संख्या बढ़ गई है। वहां पूरी टाउनशिप बनाने की योजना है। बड़ी पार्किंग होंगी, बड़े, ऊंचे होटल्स बनेंगे। ऐसे में तो हम प्रलय को न्यौता दे रहे हैं।
उस घाटी का तल पहाड़ों से आने वाले पत्थरों से बना है। ठोस तल नहीं हैं। वहां भूकंप भी आते रहते हैं, वह भूकंप के जोन 5 में आने वाला बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। वहां लोग बढ़ेंगे तो पानी का दोहन भी होगा, गंदा पानी कहां जाएगा, यह भी सोचने वाली बात है। धार्मिक स्थल भी कहते हैं पर अपनी नदियों की हालत हम ही खराब कर रहे हैं।
मान्यता है कि भागीरथ गंगा को स्वर्ग उतारने में सफल हुए थे। गंगा की धार से पृथ्वी को बचाने के लिए शिवजी ने जटाओं का उपयोग किया। आज पहाड़ों पर बारिश होते ही तेज बहाव से सड़कों के कटने और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं, दूसरी ओर सरकार गंगा समेत तमाम नदियों को पहाड़ाें पर ही रोकने में जुटी हुई है। इन विकास कार्यक्रमों का नदियों के भविष्य और खासकर मैदानी इलाकों में नदियों पर निर्भर लोगाें के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा।
डॉ. रवि चोपड़ा: हम यह सोच सकते हैं कि शिव जी की जटाएं यहां के जंगल हैं। बारिश हो, या बर्फ गिरे, जंगल इनकी रफ्तार धीमी कर देते हैं। मिट्टी का बहना भी कम हो जाता है। लेकिन अब हम जमीन, पेड़ काट रहे हैं, इससे पानी की गति कम नहीं हो पाती और वह तेजी से बहुत कुछ अपने साथ बहा ले जाता है।
लेकिन अगर हम नदी को रोकने की कोशिश करेंगे प्रकृति का कोप झेलना होगा। हम एक तरफ प्रकृति को मां मानते हैं और दूसरी तरफ उससे छेड़छाड़ भी करते हैं। एक मां की तरह वह भी हमारे इन कारनामों को बच्चे के खेल की तरह लेती है और एक हद तक बर्दाश्त भी करती है। जब मां को गुस्सा आता है तो थप्पड़ भी पड़ता है। अगर प्रकृति का बहुत दोहन होगा तो वह आपको सबक सिखाएगी। ्र
जहां तक मैदानी इलाकों की बात है तो कई भ्रांतियों को दूर करना जरूरी है। लोगों को ऐसा लगता है कि भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी जैसी सारी नदियां हिमनद से निकल रही हैं। नीचे आ रहा सारा पानी हिमनद का मानते हैं। जबकि हकीकत यह है कि इसमें हिमनद के पानी की मात्रा बहुत कम है। देवप्रयाग जहां से भागीरथी और अलकनंदा मिलकर गंगा के नाम से बहती हैं, वहां पूरे साल का बहाव नापने के वैज्ञानिक रिसर्च के मुताबिक इसमें हिमनद का हिस्सा केवल 27 प्रतिशत ही है। बाकी सारा पानी बारिश का है जो धीरे-धीरे रिसकर नदी में आता है।
ऐसे में हमें छोटे या बड़े सभी पहाड़ों पर जंगलों को बचाने की जरूरत है। ताकि बारिश का पानी इनमें जाए और धीरे-धीरे रिसकर नदी में आए। ऐसा न करने पर नदियों का पानी कम होता जाएगा और मैदानी इलाकों में भी संकट की स्थिति बन सकती है। खासकर गंगा में पानी कम होता जा रहा है। IIT खड़गपुर के एक रिसर्च के मुताबिक 70 के दशक से 2015-15 तक लोअर गंगा बेसिन में गर्मियों में गंगा में पानी की मात्रा 60 फीसदी कम हो गई है।
पीएम मोदी कहते हैं कि पर्यावरण की रक्षा हमारे लिए आस्था का विषय है। हाल ही में अमेरिका यात्रा में उन्होंने कहा कहा कि हम दोहन में विश्वास नहीं करते। इस बयान के संदर्भ में आप पहाड़ों में जारी विकास योजनाओं को लेकर क्या कहेंगे।
डॉ. रवि चोपड़ा: देखिए, कथनी बड़ी आसान है। पर कथनी और करनी में तो जमीन आसमान का अंतर है। जितने भी हमारे पर्यावरण संरक्षण वाले कानून हैं, वे बनने के बाद धीरे-धीरे लचीले होते जा रहे हैं। सरकार उनको और कमजोर करती जा रही है। क्योंकि उसको विकास चाहिए। सरकारें चाहे अभी की तो पहले की, सभी यही काम करती रही हैं।
ये सभी पर्यावरण विरोधी सरकारें हैं। ये केवल इकोनाॅमिक ग्रोथ चाहती हैं। मैं उसे डेवलपमेंट नहीं कहता। क्योंकि जिन संसाधनों के आधार पर इकोनॉमिक ग्रोथ की जा रही है, उनका सत्यानाश करते जा रहे हैं। इस ग्रोथ से कुछ लोगों को ही फायदा हाे रहा है। अगर विकास हो रहा होता तो 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की जरूरत क्यों पड़ती। इतनी गरीबी क्यों बनी हुई है। सरकार को इस सवाल का जवाब देना चाहिए।